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________________ (३०८) तक पूर्ण नहीं होता तब तक कार्मण के साथ औदारिक का मिश्र रूप होता है। (१३०८-१३०६) तथा चोक्तं नियुक्ति कारेण शस्त्रपरिज्ञाध्ययनेतेएण कम्मएणं आहारेइ अणंतरं जीवो । तेण परं मिस्सेणं जाव सरीरस्स निष्फत्ती ॥१३१०॥ तथा इस सम्बन्ध में नियुक्तिकार ने शस्त्र परिज्ञा अध्ययन में कहा है कितैजस और कार्मण शरीर से जीव अन्तर रहित-लगातार आहार करता है और उसके बाद जहां तक शरीर की निष्पत्ति होती है वहां तक मिश्र से आहार करता है। (१३१०) ननु मिश्रत्वमुभयनिष्टमौदारिकं यथा । . मिश्र भवेत्कार्मणेन तथा तेनापि कार्मणम् ॥१३११॥ ततश्चौदारिक मिश्रमेवेदं कथमुच्यते । अस्य कार्मण मिश्रत्वमपि किं 'नाभिधीयते ॥१३१२॥ यहां शंका करते हैं कि- मिश्र रूप तो दोनों के लिए समान है अर्थात् औदारिक जैसे कार्मण के साथ में मिश्र है वैसे कार्मण औदारिक के साथ में मिश्र है; फिर भी यह कार्मण औदारिक साथ में मिश्र है, इस तरह क्यों कहते हो ? औदारिक कार्मण साथ में मिश्र है, ऐसा क्यों नहीं कहते ? (१३११-१३१२) अत्राहुः - आसंसारं कार्मणस्यावस्थितत्वेन सर्वदा। सकलेष्वपि देहेसु सम्भवेदस्य मिश्रता ॥१३१३॥ ततश्च- कार्मण मिश्रमित्युक्ते निर्णेतुं नैव शक्यते। .. किमौदारिक सम्बन्धि किं वापरशरीरजम् ॥१३१४॥ यहां शंका का समाधान करते हैं कि- कार्मण शरीरं सर्वदा अन्तिम संसार तक रहता है और इससे सर्व शरीरों में उसका मिश्र रूप होना संभव है और इससे कार्मण साथ में मिश्र- इतना कहने से किसके साथ मिश्र, औदारिक शरीर मिश्र अथवा अन्य शरीर मिश्र? इसका निर्णय नहीं हो सकता है । (१३१४) औदारिकस्य चोत्पतिं समाश्रित्य प्रधानता ।' कादाचित्कतया चास्य प्रतिपत्तिरसंशया ॥१३१५॥ तदौदारिक मिश्रत्व व्यपदेशोऽस्य यौक्तिकः । . न तु कार्मण मिश्रत्व व्यपदेशस्तथा विधः ॥१३१६॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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