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________________ (२६१) श्रेणि अंगीकार करके अथवा उस श्रेणि मध्य में के गुण स्थान में रहा हो अथवा 'मोहनीय उपशांत हुआ हो, वह मृत्यु प्राप्त करे तो वह निश्चय से अनुत्तरदेवों में ही उत्पन्न होता है। गुण स्थानस्यास्य प्रोक्ता स्थितिरेकंक्षणं लघुः ।। अनुत्तरेषु वजत सा ज्ञेया जीवितक्षयात् ॥१२१२॥ - इस गुण की स्थिति जघन्यतः एक क्षण की है और वह जीवित का क्षय होने से अनुत्तर देवों में जाते जीवों के लिए समझना चाहिए । (१२१२) कर्यादपशम श्रेणिमत्कर्षादेक जन्मनि । द्वौ वारो चतुरो वारांश्चागी संसारमावसन् ॥१२१३॥ एक जन्म में प्राणी उत्कृष्टत: दो समय उपशम श्रेणि करता है और सर्व जन्मों में मिलकर चार बार करता है । (१२१३) श्रेणिरेकैवैक भवे भवेत् सिद्धान्तिनां मते । क्षपकोपशम श्रेण्योः कर्मग्रन्थ मते पुनः ॥१२१४॥ कृतैकोपशम श्रेणिः क्षपक श्रेणिमाश्रयेत् । ___ भवे तत्र द्विः कृतापशम श्रेणिस्तु नैवताम् ॥१२१५॥ युग्मं। - इति कर्म ग्रन्थ लघुवृत्तौ॥ इति एकादशम् ॥ सिद्धान्त के मतानुसार एक जन्म में क्षपक और उपशमक इन दोनों में से . एक ही श्रेणि होती है परन्तु कर्म ग्रन्थ की लघुवृत्ति में इस तरह कहा है कि एक उपशमक श्रेणि जिसने की हो वह क्षपक श्रेणि में जाता है। परन्तु यदि इस जन्म में उपशम श्रेणि में दो बार गया हो तो वह क्षपक श्रेणि ग्रहण नहीं करता। (१२१४१२१५) इस तरह से ग्याहरवां गुण स्थान समझना । क्षीणाः कषाया यस्यस्युः स स्यात्क्षीण कषायकः । वीतरागः छद्मस्थश्च गुणस्थानं यदस्य तत् ॥१२१६॥ क्षीण कषाय छद्मस्थ वीतरागाह्वयं भवेत् । गुणस्थानं के वलित्वं द्रंगाधिगमगोपुरम् ॥१२१७॥ युग्मं।
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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