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________________ (२६०) गुण स्थान द्वयं याति कश्चित्ततोऽप्यधस्तनम् । कश्चित्सासादन भावं प्राप्य मिथ्यात्वमप्यहो ॥१२०८॥ और कई तो गिरते हुए दूसरे गुण स्थान तक उतर जाते हैं और कई तो सासादने भाव प्राप्त कर अन्तिम मिथ्यात्व गुण स्थान में आ जाते हैं। (१२०८) पतिश्च भवेनास्मिन् सिद्धयेदुत्कर्षतो वसेत् । देशोन पुद्गल परावर्ता) कोऽपि संसृतौ ॥१२०६॥ और इस तरह गिरने के बाद कोई जीव तद्भव मोक्षगामी नहीं होता। कोई तो और 'अर्ध पुद्गल परावर्त' से कुछ कम समय तक संसार में भ्रमण करता है । (१२०६) तथोक्तं महाभाष्ये जइ उवसंत कसाओ लहइ अणंतं पुणोपि पडिवायम् । न हुभे वीस सियव्वं थेवे वि कसाय सेसंमि ॥११॥ इस विषय में महाभाष्य में कहा है कि- यद्यपि कषाय उपशान्त हुए हों तो भी इसके अनन्ता प्रतिपात होते हैं, इसलिए अल्प भी कषाय शेष रहे हों वहां तक यह विश्वास योग्य नहीं है। भवक्षयाद्यः पतति आद्य एव क्षणे स. तु । सर्वाण्यपि बन्धनादि करणानि प्रवर्तयेत् ॥१२१०॥ जो प्राणी जन्म के अन्त में गिरता है वह तो पहले ही क्षण में बन्धन आदि सर्व करण प्रवृत्ति करता है । (१२१०) बद्धायुरायुक्षयतो मियते श्रेणिगो यदि । अनुत्तर सुरेष्वेष नियमेव तदोद्भवेत् ॥१२११॥ और बन्धन किए आयु वाला कोई भी जब श्रेणि पर चढ़े रहे हुए ही आयुष्य पूर्ण करता और मृत्यु प्राप्त करता है तब वह नियमतः ही अनुत्तर विमान में उत्पन्न होता है । (१२११) . "तथोक्तं भाष्यवृत्तौ-यदि बद्धायु उपशम श्रेणि प्रतिपन्नः श्रेणि मध्यगत गुण स्थानवतो वा उपशान्त मोहो वा भूत्वा कालं करोति तदा नियमेन अनुत्तर सुरेषु एंव उत्त्पद्यते । इति ॥" तथा भाष्य की वृत्ति में भी कहा है कि जो कोई बंधन आयु प्राणी उपशम
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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