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________________ (२५६) षट् स्थानानि चैवम्संख्येयासंख्येयानन्त भागैर्वृद्धिर्यथाक्र मम् । संख्येयासंख्येयानन्त गुणैर्वृद्धिरितीह षट् ॥१०१४॥ अनन्तासंख्यसंख्यानामनन्तासंख्यसंख्यकाः । भेदाः स्युरित्यनन्तास्ते मति ज्ञानस्य पर्यवाः ॥१०१५।। मति ज्ञान के छ: स्थान इस प्रकार हैं - १- संख्येय भांग वृद्धि, २- असंख्येय भाग वृद्धि, ३- अनन्त भाग वृद्धि, ४- संख्येय गुण वृद्धि, ५- असंख्येय गुण वृद्धि और ६- अनन्त गुण वृद्धि । इसमें अनन्त. के असंख्येय के और संख्येय के अनन्त असंख्येय और संख्येय भेद हैं और इससे मति ज्ञान के पर्याय अनन्त हैं। (१०१४-१०१५) प्रतिज्ञेयं मति ज्ञानं विभिद्येत यतोऽथवा । ज्ञेयानन्त्यात्ततोऽनन्ता मति ज्ञानस्य. पर्यवाः ॥१०१६॥ अथवा जितने ज्ञेय हैं उतने मति ज्ञान के भेद हैं और यह ज्ञेय अनन्त हैं, इसलिए भी मति ज्ञान के अनन्त पर्याय हैं। (१०१६) . निर्विभागैः परिच्छेदैः च्छिन्नं कल्पनयाथवा । अनन्त खंडं भवतीत्यानन्ता मति. पर्यवाः ॥१०१७॥ . अथवा मति ज्ञान के निर्विभाग परिच्छेदों में छिन्न हुए कल्प, ऐसे परिच्छेदखंड अनन्त होते हैं । इस कारण से भी मति ज्ञान के अनन्त पर्याय हैं। (१०१७) स्वेभ्योऽनन्तगुणा ये च सन्त्यर्थान्तर पर्यवाः । .. यतस्तत्रोपयुज्यन्ते ततस्तेऽप्यस्य पर्यवाः ॥१०१८॥ तथा अपने से अनन्त गुणा हैं वे अन्य पदार्थों के पर्याय हैं, वे भी इसमें उपयुक्त होते हैं इसलिए वे भी इसके पर्याय हैं। (१०१८) यद्यप्यस्मिन्नसंबद्धा तथाप्यस्योपयोगतः ।। तेऽदसीया असंबद्ध स्वोपयोगि धनादिवत् ॥१०१६॥ यद्यपि वे उसमें सम्बद्ध नहीं हैं फिर भी उपयुक्त रूप से वह उसके हैं। सम्बद्ध नहीं होने पर भी उपयोगी होने से अमुक धन जैसे अपना कहलाता है उसी तरह यहां भी समझना । (१०१६)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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