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________________ ( २५५) __सादि सान्ते पुनस्तत्राधिका षट्षष्टि सागराः । __ इयमुत्कृष्ट सम्यकत्व स्थितिरेव तदन्तरम् ॥१००७॥ सादि सान्त- अज्ञान द्वय में छियासठ सागरोपम से कुछ अधिक अन्तर होता है और वह समकित की उत्कृष्ट स्थिति के समान है । (१००७) अन्तरं स्याद्विभंगस्य ज्येष्ठं कालो वनस्पतेः । अन्तर्मुहूर्तमेतेषु त्रिषु ज्ञेयं जघन्यतः ॥१००८॥ विभंग ज्ञान का उत्कृष्ट अन्तर वनस्पति के काल समान है । तीनों अज्ञानों का जघन्य अन्तर अन्तर्मुहूर्त का जानना। (१००८) स्तोक मनोज्ञा अवधिमन्तोऽसंख्य गुणास्ततः । मति श्रुत ज्ञानवन्तो मिथस्तुल्यास्ततोऽधिका ॥१००६॥ मनः पर्यव ज्ञांनी सब से कम है, अवधि ज्ञानी इससे अनन्त गुणा हैं, मति ज्ञानी और श्रुत ज्ञानी दोनों परस्पर बराबर हैं और अवधि ज्ञानी से अधिक संख्या में हैं। (१००६) असंख्येय गुणास्तेभ्यो विभंगज्ञान शालिनः । . केवल ज्ञानिनोऽनन्त गुणास्तेभ्यः प्रकीर्तिताः ॥१०१०॥ : इससे भी असंख्य गुणा विभंग ज्ञानी होते हैं और इससे अनन्ता गुणा केवल ज्ञानी होते हैं। (१०१०) तदनन्तगुणास्तुल्या मिथो द्वय ज्ञान वर्तिनः । ... अप्यष्ट स्वेषु पर्याया अनन्ताः कीर्तिता जिनैः ॥१०११॥ इससे अनन्त गुणा और परस्पर समान दोनों अज्ञान वाले हैं । पांच ज्ञान और तीन अज्ञान - इन आठों में प्रभु ने अनन्त पर्याय कहे हैं। (१०११) सर्वेषां पर्यवाद्वेधा स्वकीया पर भेदतः । स्वधर्म रूपास्तत्र स्वे पर धर्मात्मकाः परे ॥१०१२॥ . सर्व के पर्याय १- स्व पर्याय और २- पर पर्याय, इस तरह दो प्रकार के हैं। स्वधर्म रूप - यह स्वपर्याय है और परधर्म रूप - यह पर पर्याय है। (१०१२) क्षयोपशम वैचित्र्यान्मतेरवग्रहादयः । अनन्त भेदा षट् स्थान पतितत्वाद् भवन्ति हि ॥१०१३॥ क्षयोपशम की विचित्रता के कारण मति ज्ञान छः स्थानों में विभाजित हुआ है। इस तरह अवग्रह आदि के अनन्त भेद होते हैं। (१०१३)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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