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________________ (२३८) तथा जो अवधि ज्ञान का स्वामी रूचक द्वीप तक का सर्व जानता है वह दो से नौ वर्ष तक का सब जान सकता है और संख्यात वर्ष की बात का जानकार संख्यात द्वीप समुद्र तक का देख सकता है । (६१५) सामान्यतोऽत्र प्रोक्तोऽपि काल: संख्येय संज्ञकः । विज्ञेयः परतो वर्ष सहस्रादिह धीधनैः ॥६१६॥ यहां काल सामान्य से यद्यपि संख्यात वर्षों का कहा है फिर भी वह समय एक हजार वर्ष से तो अधिक समय तक बुद्धिमान को जानना चाहिये । (६१६) असंख्यकाल विषयेऽवधौ च द्वीप वार्धयः ।। भजनीया असंख्येयाः संख्येया अपि कुत्रचित् ॥६१७॥ .. तथा जहां अवधि ज्ञान का विषय काल से असंख्यात वर्ष का होता है वहां क्षेत्र से असंख्य द्वीप-समुद्रों का होता है अथवा कहीं पर संख्यात द्वीप-समुद्रों का भी होता है। (६१७) विज्ञेया भजना चैवं महन्तो द्वीपवार्धयः ।। संख्येया एव कि चैकोऽप्येक देशोऽपि सम्भवेत् ॥१८॥ यह भजना का स्पष्टाकार इस तरह है- महान् द्वीप समुद्र तो संख्यात् ही हैं अर्थात् इसमें से एक द्वीप या समुद्र भी हो अथवा इस द्वीप या समुद्र का एक देश मात्र भी हो- इन दोनों में कोई एक हो । (६१८) , तत्र स्वयम्भूरमण तिरश्चोऽसंख्य कालिके। अवधौ विषयस्तस्याम्भोधेः स्यादेक देशकः ॥६१६॥ इसका कारण यह है कि स्वयंभूरमण समुद्र और तिरछा लोक का असंख्य कालिक अवधि ज्ञान होने पर भी इसका विषय समुद्र का एक देश मात्र होता है। (६१६) योजनापेक्षयासंख्यमेव क्षेत्रं भवेदिह । असंख्य काल विषयेऽवधाविति तु भाव्यताम् ॥२०॥ यहां योजन की अपेक्षा से क्षेत्र असंख्यात होता है और वह असंख्य काल का अवधि ज्ञान होता है, तब ही होता है । (६२०) काल वृद्धौ द्रव्य भाव क्षेत्र वृद्धिरसंशयम् । . क्षेत्र वृद्धौ तु कालस्य भजना क्षेत्र सौम्यतः ॥२१॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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