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सर्वात्मना दर्शनेऽपि पश्यत्येव कथंचन ।
गै वेयकानुत्तरादि विमानालेख्य निर्मितैः ॥८८६॥ कथंचित् ये सब आत्मा दर्शन रूप से भी देखते हैं, क्योंकि ये ग्रैवेयक और अनुत्तर आदि विमानों के चित्र भी पहिचान सकते हैं । (८८६) ·
नीचेत्स्यात्सर्वथादृष्टस्यालेख्य करणं कुतः । तुर्योपांगे श्रुतज्ञान पश्यत्तापि प्ररूपिता ॥८८७॥
यदि इस तरह न हो तो सर्वथा नहीं देखे की पहिचान कैसे कर सकता है ? तथा चौथे उपांग में कहा है कि श्रुत ज्ञान में देखने का गुण भी है । (८८७)
क्षेत्रतः कालतोऽप्येवं भावतो वेत्ति सश्रुतः । भावानौदयिकादीन् वा पर्यायान् वाभिलाप्यगान् ॥८८८॥
इति श्रुतज्ञान विषयः॥ क्षेत्र से और काल से भी श्रुत ज्ञान का विषय इसी ही तरह है और भाव से यह उदयिक आदि भावों को अथवा अभिलाप्य पर्यायों को जानता है। (८८८) ।
इस तरह श्रुत ज्ञान के विषय का स्वरूप कहा है । . द्रव्यतोथावधिज्ञानी रूपिद्रव्याणि पश्यति ।
भाषातैजसयोरन्तः स्थानि तानि जघन्यतः ॥८८६॥ 'उत्कर्षतस्तु सर्वाणि सूक्ष्माणि बादराणि च । विशेषाकारतो वेत्ति ज्ञानत्वादस्य निश्चितम् ॥८६०॥
अब अवधि ज्ञान के विषय में कहते हैं । अवधि ज्ञानी जघन्यतः द्रव्य से भाषा और तेज के रूपी द्रव्यों को देखते हैं और उत्कृष्ट रूप में तो सर्व सूक्ष्म बादर पदार्थों को विशेषाकार में देखते हैं। इसको इसके ज्ञान के लिए निश्चय है। (८८८-८६०) .
क्षेत्रतोऽथावधिज्ञानी जघन्याद्वित्ति पश्यति । ... असंख्ये यतमं भागमंगुलस्योपयोगतः ॥८६१॥
और क्षेत्र से अवधि ज्ञानी विस्तार में अंगुल के असंख्यातवें भाग को भी . जघन्यतः उपयोग पूर्वक जान सकता है, देख सकता है। (८६१)