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________________ (२२२) सत्पदप्ररूपणाद्यनुयोग द्वारमुच्यते । प्राभृतान्तः स्थोऽधिकारः प्राभृत प्राभृतं भवेत् ॥८३३॥ वस्त्वन्तर्वर्त्यधिकारः प्राभृतं परिकीर्तितम् । पूर्वान्तर्वर्त्यधिकारो वस्तुनाम्ना प्रचक्षते ॥८३४॥ पूर्वमुत्पाद पूर्वादि ससमासाः समेऽप्यमी । श्रुतस्य विंशतिर्भेदा इत्थं संक्षेपतः स्मृताः ॥८३५॥ इति ज्ञानम्। सत्पदार्थों की प्ररूपणा आदि करना वह अनुयोग द्वार है और प्राभृत के अन्दर रहा अधिकार वह प्राभृत प्राभृत कहलाता है और वस्तु में रहा अधिकार है उसका नाम प्राभृत है और पूर्व में रहा अधिकार उस वस्तु के नाम से पहिचाना जाता है तथा उत्पाद पूर्व आदि पूर्व है। इस तरह से संक्षिप्त रूप में श्रुत ज्ञान के बीस भेद समझाये गये हैं । (८३३-८३५) • इस तरह श्रुत ज्ञान का विवेचन सम्पूर्ण हुआ। , अवधानं स्यादवधिः साक्षादर्थविनिश्चयः । अवशब्दोऽव्ययं यद्वा सोऽधः शब्दार्थ वाचकः ॥८३६॥ ... अधोऽधो विस्तृतं वस्तु धीयते परिबुध्यते । अनेनेत्यवधिर्यद्वा मर्यादा वाचकोऽवधिः ॥८३७॥ मर्यादा रूपि द्रव्येषु प्रवृत्ति त्वरूपिषु । तयोपलक्षितं ज्ञानमवधि ज्ञानमुच्यते ॥८३८॥ अब तीसरे अवधि ज्ञान के विषय में कहते हैं कि- अर्थ का साक्षात् निश्चय रूप अवधान, उसका नाम अवधि है अथवा दूसरे रूप में. 'अव' शब्द नीचे के अर्थ में 'अव्यय' रूप में गिना जाये तो नीचे नीचे विस्तार पूर्वक वस्तु जिसके द्वारा दिखे उस ज्ञान का नाम अवधि है अथवा तीसरे रूप में 'अव' शब्द मर्यादा के अर्थ में लेना । मर्यादा अर्थात् रूपी पदार्थों के विषय में प्रवृत्तिअरूपी पदार्थों में नहीं, परन्तु रूपी पदार्थ हो ऐसी प्रवृत्ति से जो ज्ञान होता है उसका नाम अवधि ज्ञान कहलाता है। (८३६-८३८) अनुगाम्यननुगामी वर्धमानस्तथा क्षयी । प्रतिपात्य प्रतिपातीत्यवधिः षड्विधो भवेत् ॥८३६॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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