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________________ (२०६) हैं। श्रूयते तत् श्रुतम्- ऐसी श्रुत की व्युत्पति है। श्रुत अर्थात् शब्द, यही शब्द ही श्रुत ज्ञान है अथवा यह श्रुत ज्ञान भाव श्रुत का हेतु है, इससे यदि हेतु के विषय काय का उपचार करे तो 'श्रुतात्-शब्दात् ज्ञानम् श्रुत ज्ञानम्' इस तरह भी अर्थ किया जाता है। श्रुत ग्रंथ अर्थात् शास्त्र के ग्रन्थ, इसके अनुसार जो बोध होता है वह श्रोत्र और मन उभय से होता है। (७६५-७६६) ननु श्रुत ज्ञानमपि श्रोत्रेन्द्रिय निमित्तकम् । तन्मति ज्ञानतः कोऽस्य भेदो यत्कथ्यते पृथक् ॥७६७॥ यहां शंका करते हैं कि-श्रुत ज्ञान को भी जब कर्णेन्द्रिय निमित्त रूप है तो फिर इसका मति ज्ञान से पृथक् भेद करने का क्या कारण है ? (७६७) अत्रोच्यते - वर्तमानार्थ विषयं मति ज्ञानं पर ततः। गरीयो विषयं त्रैकालिकार्थ विषयं श्रुतम् ॥७६८॥ विशुद्धं च व्यवहितानेक सूक्ष्मार्थ दर्शनात् । छद्मस्थोऽपि श्रुत बलादुच्यते श्रुत के वली ॥७६६॥ इस प्रश्न का उत्तर देते हैं कि- मति ज्ञान का विषय वर्तमान पदार्थ है, परन्तु श्रुत ज्ञान तो तीन काल के पदार्थों को बताने वाला है और इसका विषय अति विस्तार वाला है, तथा यह अनेक सूक्ष्म पदार्थों को दिखाने वाला होने से विशुद्ध है। . श्रुत ज्ञान के बल से छद्मस्थ प्राणी भी श्रुत केवली कहलाते हैं । (७६८-७६६) तदुक्तम् ...... "नाणं अणाइ सेसी वियाणइ एस छउमत्थोत्ति॥" .. अर्थात् कहा है कि मति ज्ञान और श्रुत ज्ञान- ये अनतिशायी ज्ञान कहलाते हैं, शेष तीन अतिशायी कहलाते हैं । वह छद्मस्थ कहलाता है। • जीवस्य ज्ञ स्वभावत्वान्मतिज्ञानं हि शाश्वतम् । संसारे भ्रमतोऽनादौ पतितं न कदापि यत् ॥७७०॥ अक्षरस्यानन्त भागो, नित्योद्घाटित एव हि । निगोदिनामपि भवेदित्येतत्त्पारिणामिकम् ॥७७१॥ जानना यह जीव का स्वभाव है, इससे मति ज्ञान शाश्वत कहलाता है क्योंकि अनादि संसार में भ्रमण करते इस जीव का ज्ञान कभी भी नहीं जाता, अक्षर के अनंतवें भाग जितना तो सर्वदा खुला रहता है। अतः निगोद के जीव को भी वह परिणाम होता है । (७७०-७७१)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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