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सर्वथा शास्त्र संस्पर्शरहितस्य तथाविघात् । क्षयोपशमतो जाता भवेदश्रुत निश्रिता ॥७६२॥
लोक में केवल दो प्रकार की बुद्धि कहलाती है १- श्रुत निश्रित और २- अश्रुत निश्रित। उसमें प्रथम शास्त्रार्थ विचार करने से उत्पन्न होती है और उस शास्त्र के संस्कार प्राप्त करने वालों में होती है । अन्य अश्रुत निश्रित नाम की है 1 यह शास्त्र का अल्प मात्र भी संस्कार जिसमें नहीं होता उसको होती है और वह किसी प्रकार के क्षयोपशम से होती है। (७६१-७६२)
कहा है।
सर्वाप्यन्तर्भवत्त्यस्मिन् मतिरश्रुत निश्रिता । यथोक्तधी चतुष्केऽतः पंचम्या नास्ति सम्भवः ॥७६३ ॥ इदमर्थतोनन्दी सूत्र वृत्ति स्थानांग सूत्र वृत्त्यादिषु ॥
सर्वश्रुत अश्रुत निश्रित बुद्धि के भेद जो ऊपर कहे गये हैं वह चार प्रकार की बुद्धि में समावेश हो जाते हैं। इसलिए इन चार के उपरांत कोई पांचवां भेद संभव नहीं होता है । (७६३)
नन्दी सूत्र की वृत्ति स्थानांग सूत्र की वृत्ति आदि में भी इसी प्रकार ही
जाति स्मृतिप्यतीत संख्यात भवबोधिका । मति ज्ञानस्यैव भेदः स्मृतिरूप तया किल ॥७६४॥
निर्गमन किए संख्यातवें जन्मों का स्मरण करने वाला जाति स्मरण ज्ञान है - वह स्मरण रूप होने के कारण मति ज्ञान का ही एक भेद है। (७६४)
यदाहाचारांगटीका- “जाति स्मरण तु आभिनि बोधिकाविशेष इति । इति मति ज्ञानम् ॥"
आंचाराग सूत्र की टीका में कहा है कि जाति स्मरण एक प्रकार का अभिनिबोधन अर्थात् मति ज्ञान है। इस तरह मति ज्ञान का स्वरूप समझना।
श्रूयते तत्श्रुतं शब्दः स श्रुतज्ञानमुच्यते । भाव श्रुतस्य हेतुत्वा द्वेतौ कार्योपचारतः ॥७६५॥ श्रुताच्छब्दादुत ज्ञानं श्रुतज्ञानं तदुच्यते ।
श्रुत ग्रंथानुसारी यो बोधः श्रोत्रमनः कृतः ||७६६॥
अब पांच प्रकार के ज्ञान में से दूसरे प्रकार- श्रुत ज्ञान के विषय में कहते