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और अवाय के आश्रित को इस तरह अन्त में निश्चय होता है अर्थात् अन्य विशेष की जब आकांक्षा नहीं रहती और केवल अवाय ही रहता है, तब उपचार नहीं होता। इस कारण से जो यह औपचारिक अवग्रह होता है उसे स्वीकार करते हैं तब बहु अवग्रह करता है- इस तरह कहलाता है, एक समय स्थायी नैश्चयिक के आश्रित को नहीं कहलाता है। इस तरह से सर्वत्र उपचार के आश्रय से समझना चाहिए।
औत्पात्तिकी वैनयिकी कार्मिकी पारिणामिकी । आभिः सहामी भेदाः स्युः चत्वारिशं शत त्रयम् ।७५०॥
उत्पतिकी, विनयिकी, कार्मिकी और परिणामिकी- इन चार- भेद को मिलाने से मति ज्ञान के तीन सौ चालीस भेद होते हैं। पूर्व में ७३६ वें श्लोक में तीन सौ छत्तीस भेद गिनाए हैं, उनमें ये चार मिलाने से होते हैं । (७५०)
न दृष्टो न श्रुतश्च प्राग मनसापि न चिन्तितः। यथार्थस्तक्षणादेव ययार्थो गृह्य ते धिया ॥७५१॥ लोक द्वया विरुद्धा सा फलेनाव्यभिचारिणी । बुद्धिरौत्पत्तिकी नाम निर्दिा रोहकादिवत् ॥७५२॥ (युग्म।)
पूर्व में देखा अथवा सुना भी न हो, मन में चिन्तन किया भी न हो, ऐसा कोई भी पदार्थ हो- उसे जो बुद्धि से सहसा ग्रहण कर सके, उभय लोक की अविरोधी हो, निर्णीत फल देने वाली हो वह रोहक आदि के समान बुद्धि हो, वह उत्पत्तिकी बुद्धि कहलाती है। (७५१-७५२)
गुरु णां विनयात्प्राप्ता फलदात्र परत्र च । धर्मार्थ कामशास्त्रार्थ पटुः वैनयिकी मतिः ॥७५३॥
गुरु महाराज के विनय से उत्पन्न हुई उभय लोक को सफल करने वाली और धर्म, अर्थ, काम तथा शास्त्रार्थ के विषय में तीव्रता वाली बुद्धि 'विनयिकी' बुद्धि कहलाती है। (७५३)
निमित्तिकस्य शिष्येण विनीतेन यथोदितः । स्थविरायाः घटध्वंसे सद्यः सुतसमागमः ॥७५४॥ .
एक स्थविर-उम्र लायक वृद्ध का घड़ा फूट गया, उस पर एक निमित्त वाले विनय युक्त शिष्य ने कहा कि- जल्दी इसको पुत्र का मिलन होगा । यह विनयिकी बुद्धि का दृष्टान्त समझना । (७५४)