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सामायिक अनन्त जन्म तक प्राप्त करता है। जबकि जघन्य रूप में सर्व सामायिक एक ही जन्म में प्राप्त करता है । (५-६)
आकर्षाणां खलु शतपृथकत्वं सर्व संवरे। स्यात्सहस्र पृथकत्वं च त्रयाणमेक जन्मनि ॥७॥
एक जन्म में सर्व संवर के विषय में अर्थात सर्व विरति सामायिक के विषय में दो सौ से नौ सौ तक आकर्ष होता है और शेष तीन सामायिक के विषय में दो हजार से लेकर नौ हजार तक होता है । (७).
नानाभवेषु चाकर्षा असंख्येयाः सहस्रकाः । आद्यत्रये तुरीये च स्यात्सहस्र पृथकत्वकम् ॥८॥ यत् त्रयाणां प्रतिभवं स्युः सहस्रपृथकत्वकम् । । असंख्येया भवाश्चेति युक्तास्तेऽमी यथोदिताः ॥६॥ चारित्रे यत्प्रति भवं तेषा शप्तपृथकत्वकम् । भवाश्चाष्टौ ततौ युक्तं तत्सहस्त्र पृथकत्वकम् ॥१०॥
अनेक नाना प्रकार के जन्मों में प्रथम के तीन सामायिक के विषय में असंख्य हजार आकर्षण होते हैं और अन्तिम यानि चौथे सामायिक में दो हजार से लेकर नौ हजार तक होते हैं । क्योंकि तीन सामायिक के विषय में प्रत्येक जन्म में दो हजार से नौ हजार तक आकर्षण होते हैं तंब असंख्य जन्म के विषय में असंख्य सहस्र कहे हैं- यह युक्त ही है और सर्व विरति सामायिक के विषय में प्रत्येक जन्म के अन्दर दो सौ से लेकर नौ सौ तक आकर्षण कहे हैं । इस कारण से आठ जन्म में दो हजार से लेकर नौ हजार तक कहे हैं, वह भी युक्त ही हैं । (८ से १०)
"आकर्षः प्रथमतया ग्रहणं मुक्तस्य वा ग्रहणम् इति ॥ इदमर्थतः आवश्यक सूत्र वृत्यादिषु ॥"
'आकर्षण = प्रथम ग्रहण करना अथवा एक बार छोड़कर पुनः ग्रहण करना- यह अर्थ आवश्यक सूत्र की वृत्ति आदि में कहा है ।'
मिथ्यादृष्टिविपर्यस्ता जिनोक्ताद्वस्तु तत्त्वतः।
सा स्यान्मिथ्यात्विनां तच्च मिथ्यात्वं पंचधा मतम् ॥६८८॥ अब कुछ मिथ्या दृष्टि के विषय में कहते हैं :- जिन प्रभु द्वारा कथित