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________________ ( १६१ ) प्रवेश नहीं करता । यदि इस तरह होता हो वह बह ही जाय परन्तु ऐसा नहीं होता । इसलिए उनका मत अयुक्त है । (५३१-५३२) 'इत्याद्यधिकं रत्नावतारिकादिभ्योऽवसेयम् । विस्तार भयान्नेह प्रतन्यते ।। ' अर्थात् ' इस विषय में अधिक विस्तार पूर्वक 'रत्नावतारिका' में कंहा गया है, वहां से जान लेना चाहिये ।' " यच्च सिद्धान्ते चख्खु फासं हव्वमागच्छइ इति श्रुयते तत्र स्पर्श शब्देन इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष उच्यते । तथाहुः । सूरिए चख्खु फासं हव्वमागच्छइ इत्येतज्जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति प्रतीक वृत्तौ । अत्र च स्पर्श शब्द इन्द्रियार्थ सन्निकर्ष परश्चक्षुषोऽप्राप्यकारित्वेन तद सम्भवादिति ॥ " और सिद्धान्त में 'चख्खु फासं हव्वं आगच्छइ' ऐसा पाठ सुनते हैं। वहां फास अर्थात् स्पर्श- यह शब्द इन्द्रिय और पदार्थ के सन्निकर्ष (सम्बन्ध) का वाचक है । जम्बूद्वीप प्रज्ञप्ति की प्रतीक वृत्ति टीका में 'सूरिए चख्खु फासं हव्वमागच्छइ' इस तरह एक उल्लेख मिलता है । वहां भी 'फार्स' अर्थात् स्पर्श • शब्द का पूर्व के समान ही अर्थ किया है। स्पर्श अर्थात् सन्निकर्ष यानि निकटता । क्योंकि चक्षु का स्पर्श तो असंभव है क्योंकि वह प्राप्य कारित्व है। इसलिए ही कहा है । मेया आत्मांगुलैरे व प्रागुक्तेन्द्रिय गोचराः । प्रमाणांगुलमाने स्युर्महीयांसोऽधुना हिते ॥५३३॥ अब पूर्वोक्त इन्द्रियगोचर विषयों को किस प्रकार के मान से मापना चाहिए ? इस विषय में कहते हैं- इसको आत्मांगुल द्वारा ही मापना चाहिए, क्योंकि अन्य तरह से प्रमाणांगुल रूप में माप लिया जाय तो वह इस समय में बहुत लम्बा हो जायेगा । (५३३) उत्सेधांगुल माने तु कथं भरत चक्रिणः । पुर्यादौ स्वांगुलमित नवद्वादश योजने ॥ ५३४॥ एकत्र वादिता भम्भा सर्वत्र श्रूयते जनैः तस्मादात्मांगुलोन्येया विषया इति युक्तिमत् ॥५३५ ॥ ( युग्मं । ) 1 यदि उत्सेधांगुल से माप किया जाये तो इसमें भी मुश्किल आती है। इंस तरह का माप लेने से भरत चक्रवर्ती की अपनी उत्सेध अंगुल द्वारा माप करने पर नौ योजन चौड़ा और बारह योजन लम्बा होता है । ऐसी नगरी आदि में एक
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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