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________________ (१६०) स्पर्शादि द्रव्य संघातापेक्षया शब्द संहतिः । बह्वी सूक्ष्मासन्न शब्द योग्य द्रव्याभिवासिका ॥५२८॥ तन्निर्वृत्तीन्द्रिस्यान्तर्गत्वोपकरणेन्द्रियम् । स्पृष्ट्वापि सद्यः कुरूतेऽभिव्यक्ति सा स्व गोचराम् ॥५२६॥ तथा स्पर्शादि द्रव्य समूह की अपेक्षा से शब्द समूह बहुत सूक्ष्म है और आसन्न शब्द योग्य पदार्थों में ही अभिवासित करता हैं इसलिए यह निर्वृत्ति इन्द्रिय के अन्दर प्रवेश कर उपकरण इन्द्रिय को केवल स्पर्श कर जल्दी स्वगोचर ज्ञान करता है। (५२८-५२६) अन्येन्द्रियापेक्षया च श्रवणं पटुशक्तिकम् । । ततः स्पृष्टानेव शब्दान् गृह्णातीत्युचितं जगुः ॥५३०॥ और अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा से कर्णेन्द्रिय में विशेष सामर्थ्य शक्ति रही है। इसलिए शब्द का स्पर्श होते ही उस शब्द को ग्रहण कंर लेता है । इस तरह जो कहा है वह युक्त ही कहा है । (५३०) श्रुतेर्यत्प्राप्य कारित्वे बौधोक्तं स्पर्शदूषणम् । चंडाल शब्द श्रवणादिष्व यौक्तिकमेव तत् ॥१॥ स्पृष्यास्पृष्य विचारो हि स्याल्लोक व्यवहारतः ।.. नेन्द्रियाणां च विषयेएवसौ कस्यापि सम्मतः ॥२॥ श्रोत्रेन्द्रिय का 'प्राप्य कारित्व' स्थापना में बौद्ध लोग 'चडांल शब्द' श्रवण करते स्पर्श का दोष लगता है- मानते हैं। वह केवल अयोग्य है, क्योंकि-स्पर्शास्पर्श का विचार लोक व्यवहार को लेकर है, परन्तु इन्द्रिय के विषयों में इस विचार से कोई भी सम्मत नहीं होता है । (१-२) स्पृष्टार्थ ग्राहकत्वं यत् परैरक्ष्णोऽपि कथ्यते । तयुक्तं तथात्वे हि दाहः स्याद्वन्ह्यवेक्षणात् ॥५३१॥ तथा-- काचपात्राद्यन्तरस्थं दूरादेवेक्ष्यते जलम् । तद्भित्वान्तः प्रवेशे तु जलश्राव: प्रसज्यते ॥५३२॥ अन्य मत वालों ने चक्षु इन्द्रिय को भी स्पृष्ट पदार्थ को ग्रहण करने वाली कहा है- वह युक्त नहीं है क्योंकि यदि इस तरह हो तो अग्नि को देखते ही चक्षु जल जानी चाहिए । तथा कांच-शीशे के पात्र में रखा जल हम लोग देख सकते हैं, वह भी दूर से ही देख सकते हैं। यह किसी पात्र का भेदन कर बाहर आकर चक्षु में
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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