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________________ (१४८) __ इंदुः स्यात् परमैश्वर्ये धातोरस्य प्रयोगतः । इन्दनात्परमैश्वर्यादिन्द्र आत्माभिधीयते ॥४६४॥ अब बाईसवां द्वार 'इन्द्रिय' का स्वरूप कहते हैं । यह इन्द् धातु से बना है। इसका अर्थ ऐश्वर्यवान में उपयोग होता है । इस धातु का प्रयोग करके इन्दन अर्थात् 'ऐश्वर्य लेते' ऐश्वर्यवान के लिए इन्द्र शब्द उपयोग होता है। आत्मा ऐश्वर्यवान है इसलिए आत्मा भी इन्द्र कहलाती है । (४६४) . तस्यलिंग तेन सृष्टमितीन्द्रियमुदीर्यते । ... श्रोत्रादि पंचधा तच्च तथाधुवाच भाष्यकृत् ॥४६५॥ इस कारण से आत्मा के बनाये अपने लिंग-चिन्ह इन्द्रिय कहलाती हैं । ये इन्द्रिय श्रोत्र आदि पांच अर्थात् श्रोत्र, चक्षु, घ्राण, रसना, स्पर्शन- ये पांच इन्द्रिय होती हैं । भाष्यकार कहते हैं कि (४६५) . ईंदो जीवों सव्वोबलद्धि भोग पर मेसरत्तणओ। सोत्ताइ भेयमिंदियमिहतल्लिंगाइ भावाओ ॥४६६॥ इन्द्र अर्थात् जीवात्मा, क्योंकि सर्व प्रकार की उपलब्धि या रसों भोगों का ऐश्वर्य होता है और श्रोत्र आदि भेद वाली जो इन्द्रियां हैं वे जीव के भाव लिंग-चिह्न होते हैं । (४६६) श्रोत्राक्षि घ्राण रसन स्पर्शना नीति पंचधा । तान्येकैकं द्विभेदं तद् द्रव्य भावविभेदतः ॥४६७॥ तत्र निवृत्ति रूपं स्यात्तथोपकरणात्मकम् । द्रव्येन्द्रियमिति द्वेधा तत्र निर्वृत्तिराकृतिः ॥४६८॥ १- श्रोत्र, २- अक्षि, ३- घ्राण, ४- रसना, ५- स्पर्शन- ये पांच इन्द्रियां हैं। इनसे प्रत्येक के द्रव्य और भाव रूप दो भेद हैं और इसमें द्रव्येन्द्रिय के फिर दो भेद हैं। प्रथम निवृत्ति रूप और दूसरा प्रवृत्ति रूप है । निवृत्ति अर्थात आकृति रूप समझना । (४६७-४६८) सापि बाह्यान्तरंगा च बाह्या तु स्फुटमीक्ष्यते । प्रति जाति पृथग्रूपा श्रोत्र पर्पटिकादिका ।।४६६॥ नानात्वान्नोपदेष्टं सा शक्या नियत रूपतः । नाना कृतीनीन्द्रियाणि यतो वाजि नरादिषु ॥४७०॥ निवृत्ति रूप जो आकृति है उसके भी १- बाह्य और २- अन्तरंग दो भेद होते हैं । बाह्य आकृति में तो प्रत्येक जाति में कर्ण-कान आदि भिन्न-भिन्न रूप में स्पष्ट
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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