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________________ (१२३) स्थितिं वक्ष्येऽथ लेश्यानां नारक स्वर्गिणोर्नृणाम् । तिरश्चां च जघन्येनोत्कर्षेण च यथागमम् ॥३३५॥ अब नारकी, देवता मनुष्य और तिर्यंच की लेश्याओं की आगम में जघन्य और उत्कृष्ट स्थिति के विषय में जो कहा है उसे कहते हैं। (३३५) अब १- नारकी की लेश्या की स्थिति के विषय में कहते हैंदश वर्ष सहस्राणि कापोत्याः स्याल्लघुः स्थितिः । उत्कृष्टा त्रीण्यतराणि पल्यासंख्यलवस्तथा ॥३३६॥ कापोत लेश्या की जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट तीन सागरोपम और पल्योपम के असंख्यातवें भाग के सद्दश है । (३३६) जघन्या तत्र धर्माद्य प्रस्तरापेक्षया भवेत् । उत्कृष्टा च तृतीयाद्य प्रस्तरापेक्षयोदिता ॥३३७॥ इसमें भी जघन्य स्थिति प्रथम नारकी के पहले प्रस्तर की अपेक्षा से और उत्कृष्ट तीसरे नरक के प्रथम प्रस्तर की अपेक्षा से समझना । (३३७) नीलाया लघुरेषैवोत्कृष्टा च दश वार्धयः । पल्यासंख्येय भागाढ्याः कृष्णायाः स्यादसौ लघुः ॥३३८॥ नील लेश्या की जघन्य स्थिति पूर्व में कही है- उतनी ही समझना और उत्कृष्ट दस सागरोपम और पल्योपम के असंख्यातवें भाग की होती है । उतनी ही कृष्ण लेश्या की जघन्य स्थिति होती है । (३३८) स्थितिर्जघन्या नीलायाः शैलाद्यप्रस्तरे भवेत् । रिष्टाद्यप्रस्तरे स्वस्या ज्येष्टा कृष्णास्थितिलघुः ॥३३६॥ कृष्णायाः पुनरुत्कृष्टा त्रयस्त्रिंशत्पयोधयः । इयं माघवतीवर्ति ज्येष्ठायुष्क व्यपेक्षया ॥३४०॥ नील लेश्या की जघन्य स्थिति 'शैला नारकी के प्रथम प्रस्तर में होती है और उत्कृष्ट रिष्टा नारकी के प्रथम प्रस्तर में होती है । यही कृष्ण लेश्या की जघन्य स्थिति होती है। कृष्ण लेश्या की उत्कृष्ट स्थिति तैंतीस सागरोपम की होती है और वह स्थिति 'माघवती' नामक नारकी की उत्कृष्ट आयु की अपेक्षा से होती है। (३३६-३४०)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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