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के आश्रय वाले होते हैं और सातवां नाम कर्म, गोत्र कर्म और वेदनीय - इन तीनों के आश्रय वाला होता है। (२७५-२७६)
इति जीव समुद्घाताः ॥ इस तरह जीवों के समुद्घात का सम्बन्ध जानना।
योऽप्यचित्त महास्कन्धः समुद्घातोऽस्त्यजीवजः ।
अष्ट सामायिकः सोऽपि ज्ञेयः सप्तभवत्सदा ॥ २७७॥
तथा अचित महास्कंध रूप अजीव से उत्पन्न हुआ जो समुद्घात है उसका काल सातवें समुद्घात के समान आठवें समय का है। (२७७)
पुद्गलानां परीणामाद्विश्रसोत्थात्स जायते । अष्टभिः समयैर्जात समाप्तो जिनसत्कवत् ॥२७८॥
स्वभाव से उत्पन्न हुए पुद्गलों के परिणाम से वह केवली समुद्घात के समान समय में समाप्त होता है। (२७८)
'इति समुद्घात' इस तरह से समुद्घात नामक बारहवां द्वार सम्पूर्ण हुआ। '
विवक्षित भवादन्य भवे गमनयोग्यता ।
या भवेद्देहिनां सात्र गतिर्गतं च कथ्यते ॥ २७६ ॥
इति गति स्वरूपम् ॥१३॥
विवक्षित जन्मों से अन्य जन्म में जाने की योग्यता प्राणियों में आती है, वह गति (चेष्टा) अथवा गत कहलाती है। (२७६)
यह गति नामक तेरहवां द्वार का स्वरूप कहा है।
विविक्षते भवेऽन्येभ्यो भवेभ्यो या च देहिनाम् । उत्पतौ योग्यता सात्रागतिरित्युपदर्शिता ॥ २८०॥ एक सामयिकी संख्या मृत्यूत्पत्त्योस्तथान्तरम् । द्वारेऽस्मिन्नेव वक्ष्यन्ते तद् द्वाराणि पृथग् न तत् ॥२८१ ॥ इति आगति स्वरूपम् ॥१४॥
अन्य जन्मों से विवक्षित जन्मों में आने की योग्यता प्राणियों में आती है, वह आगति कहलाती है। एक समय वाली संख्या तथा मृत्यु और उत्पत्ति का अन्तर, यह सब इसी ही द्वार में कहा है। इसके अलग-अलग द्वार नहीं कहे । (२८०-२८१)
इस तरह से आगति नामक चौदहवां द्वार का स्वरूपं है।