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________________ (१०६) इस तरह के उपाय से सर्व योगों का निरोध करने से अयोगी बनता है। इससे वह शैलेशी अवस्था प्राप्त करता है। (२६२) पंचानाह्रस्व वर्णानामुच्चार प्रमितां च ताम् । प्राप्तः शैलेश निष्कम्पः स्वीकृतोत्कृष्ट संवरः ॥२६३॥ शुक्ल ध्यानं चतुर्थं च ध्यायन् युगपदं जसा । वेद्यायुर्नाम गोत्राणि क्षपयित्वा स सिद्धयति ॥२६४॥ (युग्म।) ___ अ, इ, उ, ऋ और ल- इन पांच ह्रस्व अक्षरों का उच्चारण करने में जितना समय लगता है उतने ही समय में वह शैलेशी अवस्था को प्राप्त करने लगता है। शैल का अर्थ पहाड़-पर्वत और ईश का अर्थ स्वामी, अर्थात् पर्वतों का स्वामी सुमेरु है, मेरुपर्वत की अवस्था निश्चचल होती है वैसे ही आत्मा की अवस्था मेरुपर्वत की तरह निष्कंप होती है। इसलिए उसे शैलेशी अवस्था कहते हैं। उत्कृष्ट संवर तत्त्व स्वीकार करके शुक्ल ध्यान का चौथा स्थान होता है । इससे एक साथ वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्मों को खत्म कर वह सिद्ध स्थान प्राप्त करता है। (२६३-२६४) अगत्वापि समुद्घातमनंन्ता निर्वृता जिनाः । अवाप्यापि समुद्घातमनन्ता निवृता जिनाः।।२६५॥ अनन्त केवली समुद्घात किए बिना भी मोक्ष गये हैं और अनंत समुद्घात के द्वारा भी मोक्ष गये हैं। (२६५) अत्रायं विशेषः. यः षण्मासाधिकायुष्को लभते केवलोद्गमम् । करोत्यसौ समुद्घातमन्ये कुर्वन्ति वा न वा ॥ ...'. इति गुण स्थानक्रमारोहे ॥ यहां विशेष इतना है कि 'जब छ: महीने आयुष्य शेष रहा हो तभी जिसने केवल ज्ञान प्राप्त किया हो वही समुद्घात करते हैं, अन्य करें अथवा नहीं भी करते हैं।' इस तरह 'गुण स्थान क्रमारोह' ग्रन्थ में कहा है। छम्मासाऊ सेसे उत्पणं जेसि केवलं नाणम् । ते नियमा समुधाइय सेसा समुधाय भइभव्वा ॥ (इत्यस्सवृतौ) इति केवलि समुद्घातः॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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