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________________ (१०६ ) आदि कर्म अधिकतर रह गये हों तो उन्हें बराबर करने के लिए केवली समुद्घात करते हैं । (२४६) यह प्रशमरति की २७३वीं गाथा है । दंडं प्रथमे समये कपाटमथ चोत्तरे तथा समये । मन्थानमथ तृतीये विश्वव्यापी चतुर्थे तु ॥२४७॥ संहरति पंचमेत्वन्तराणि मन्थानमथ पुनः षष्ठे । सप्तमके तु कपाटं सहरति ततोऽष्टमे दंडम् ॥२४८॥ केवल ज्ञानी समुद्घात करते समय प्रथम समय में दण्ड के आकार से आत्म प्रदेश को नीचे से ऊपर लोक के अन्त तक फैलाते हैं। दूसरे समय में कपाट के आकार के आत्म प्रदेश बनाकर फैलाते हैं अर्थात् दक्षिण-उत्तर दिशा में लोक अन्त तक आत्म प्रदेशों को फैलाते हैं। तीसरे समय में उस कपाट को मथानी के आकार का बनाते हैं अर्थात् पूर्व-पश्चिम में लोक के अन्त तक आत्म प्रदेशों को मथानी के आकार का बनाकर फैलाते हैं और चौथे समय में मथानी से अन्तरालजहां खाली जगह रह जाती है उसको भरकर आत्मा चौदह राजलोक विश्वव्यापी हो जाता है। उस समय आत्मा का विराट स्वरूप होता है । इस तरह चार समय में अघाती कर्म सम स्थिति वाले बनाकर वे आत्मप्रदेशों का उपसंहार कर (समेट) लेते हैं अर्थात् पांचवे समय में अन्तराल के प्रदेशों को समेट लेते हैं। छठे समय में मथानी को समेटते हैं, सातवें समय में कपाट को सिकोड़ते हैं और आठवें में दण्ड को समेट कर पहले की तरह अपने मूलरूप शरीर में स्थिर हो जाते हैं । (२४७-२४८) ये प्रशमरति में २७३ और २७४ वीं गाथाएं आई हैं । औदारिक प्रयोक्ता प्रथमाष्टमसयोरसाविष्टः । मिश्रौदारिकयोक्ता सप्तमषष्ट द्वितीयेषु ॥२४६॥ कार्मण शरीरयोक्ता चतुर्थके पंचमे तृतीय च । समयत्रयेपि तस्मिन् भवत्यनाहारको नियमात् ॥२५०॥ पहले और आठवें समय में औदारिक शरीर का योग होता है क्योंकि उस समय केवली भगवान् अपने मूल शरीर में ही स्थिर होते हैं । कपाट का उपसंहार सातवें में होता है, मथानी का उपसंहार छठे समय में होता है और कपाट का
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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