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(१०३) बांधता है और कोई समुद्घात से निवृत्त होकर वापिस अपने शरीर में आकर पुनः समुद्घात कर वहां उत्पन्न होता है । यह अर्थ भगवती सूत्र के छठे शतक के छठे उद्देश में नरकादि से अनुत्तर के अन्तभाग तक के सभी स्थानों में कहा है। इस तरह मरणान्तिक समुद्घात्र है।
वैकर्विक समदघातं प्राप्तो वैक्रिय शक्तिमान् । कर्मावृता नामात्मात्मीय प्रदेशानां तनोर्बहिः ॥२२८॥ निसृज्य दंडं विष्कम्भ बाहल्याभ्यां तनुप्रमम् । आयामतस्तु संख्यात योजन प्रमितं ततः ॥२२६॥ वैक्रियांगाभिधनाम् कर्मांशान् पूर्वमर्जितान् । शातयन् वैक्रियांगार्हान स्कन्धांल्लात्वा करोति तत् ॥२३०॥ विशेषकम् ।
इति वैक्रिय समुद्घातः। चौथे वैक्रिय समुद्घात को प्राप्त करने वाला वैक्रिय शक्ति वाला जीव कर्मों से घिरा हुआ आत्म प्रदेशों को शरीर से बाहर निकाल कर मोटाई, चौड़ाई में अपने शरीर के अनुसार तथा लम्बाई में संख्यात् योजन समान दंडाकार बनाकर . फिर पूर्व उपार्जित वैक्रिय शरीर नामकर्म के अंशों को शान्त करता है और वैक्रिय शरीर के योग्य स्कन्धों को लेते हुए समुद्घात करता है । इसका नाम वैक्रिय समुद्घात कहलाता है । (२२८ सें २३०).
समद्धतस्तैजसेन तेजो लेश्याख्य शक्तिमान् । . कर्मावृतात्म प्रदेशराशे वैक्रि यवद् बहिः ॥२३१॥ .
देह विस्तार बाहल्यं संख्येय योजनायतम् । निसृज्य दंडं प्राग्बद्धान् शातयेत्तैजसाणुकान् ॥२३२॥ (युग्म ।) अन्यानादाय तद्योग्यान् तेजोलेश्यां विमुंचति । तैजसोऽयं समुद्घातः प्रज्ञप्तस्तत्व पारगैः ॥२३३॥
इति तैजस समुद्घातः। पांचवे तैजस समुद्घात को प्राप्त करने वाला तेजोलेश्या नाम की शक्ति वाला जीव वैक्रिय के समान कर्मों से घिरा हुआ आत्म प्रदेशों को बाहर निकालकर उनको अपने शरीर के अनुसार मोटा, चौड़ा और संख्यात योजन लम्बा दण्डाकार करके पूर्वबद्ध तैजस अंशों को खत्म करता है और योग्य अंशों को लेकर तेजोलेश्या छोड़ता है । इसका नाम तैजस समुद्घात है । (२३१ से २३३)