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दूसरा कषाय से व्याकुल प्राणी आत्म प्रदेशों द्वारा मुख आदि खाली विभागों को पूर्ण कर और उन्हें पूर्व के समान विक्षेप कर लम्बाई, चौड़ाई में शरीर प्रमाण क्षेत्र में व्याप कर कषाय मोहनीय नामक कर्म के बहुत अंशों को खत्म करता है और खत्म करने हेतु अन्य अनेक अंशों को ग्रहण करता है (इस तरह सर्वत्र समझना) । यदि इस तरह न हो तो फिर उसे मोक्ष प्राप्ति का प्रसंग नहीं आता है। यह कषाय समुद्घात क्रोध, मान, माया और लोभरूप हेतुओं से चार प्रकार का कहा है । इसका नाम कषाय समुद्घात कहलाता है। (२२० से २२३).
अंतर्मुहूर्त शेषायुर्मरणान्त करालितः । . मुखादिरन्ध्राण्यापूर्य शरीरी स्वप्रदेशकैः ॥२२४॥ स्वांगविष्कम्भ वाहल्यं स्व शरीरातिरे कतः । जघन्यतोऽगुलासंख्येयांशमुत्कर्षतः पुनःः ॥२२५॥ . . असंख्य योजनान्येकदिश्युत्पत्ति स्थलावधि । आयामतोऽपि व्याप्यान्तर्मुहूर्तान्प्रियते ततः ॥२२६॥ . मरणान्त समुद्घातं गतो जीवश्च शातयेत्।
आयुषः पुद्गलान् भूरीनादत्ते च नवान्नतान् ॥२२७॥
तीसरा- मरणान्त से दुःखित बने जीव का जब अन्तर्मुहूर्त आयुष्य शेष रहता है तब वह जीव आत्म प्रदेशों से मुखादि छिद्र विभाग को पूर्ण कर मोटाई-चौड़ाई में शरीर प्रमाण तथा. लम्बाई में जघन्यतः अंगुल के असंख्यात विभाग जितना और उत्कृष्ट रूप में एक दिशा में आखिर उत्पत्ति स्थान तक असंख्यात योजन समान व्याप कर अन्तर्मुहूर्त में मृत्यु प्राप्त करता है । यह जीव बहुत आयुष्य पुद्गलों को खतम कर देता है परन्तु नये को ग्रहण नहीं करता । (२२४ से २२७)
"अत्रायं विशेषः। कश्चिजीवः एकेनैव मरणान्तिक समुद्घातेन नरकादिषूत्पद्यते तत्राहारं करोति शरीरं च बध्नान्ति कश्चित्तु समुद्घातान्निवृत्य स्वशरीर मागत्य पुनः समुद्घातं कृत्वा तत्रोपपद्यते।अयमर्थो भगवती षष्ट शत कषष्टोद्देशके नरकादिषु अनुत्तरान्तेषु सर्व स्थानेषु भावतोऽस्तीते ज्ञेयम् ॥"
इति मरणान्तिक समुद्घातः। इस विषय में इस तरह विशिष्टता है- कोई जीव एक ही मरणान्तिक समुद्घात करके नरकादि में उत्पन्न होता है । वहां आहार करता है और शरीर भी