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________________ (८६) इस तरह से विषयकृत विशेष-भेद है। धर्माधर्मार्जनं सौख्यदुःखानुभव एव च । केवल ज्ञान मुक्त्यादि प्राप्तिराद्यप्रयोजनम् ॥१२२॥ एकानेकत्व सूक्ष्मत्व स्थूलत्वादि नभोगतिः । संघ साहाय्यमित्यादि वैक्रियस्य प्रयोजनम् ॥१२३॥ सूक्ष्मार्थ संशयच्छेदो जिनेन्द्रद्धि विलोकनम । ज्ञेयमाहार कस्यापि प्रयोजनमनेकधा ।।१२४।। . प्रथम औदारिक शरीर का प्रयोजन धर्माधर्म उपार्जन करना, सुख दुःख का अनुभव करना, केवल ज्ञान प्राप्त करना, मोक्ष पद प्राप्त करना है। वैक्रिय शरीर का प्रयोजन एकत्व, अनेकत्व, सूक्ष्मत्व, स्थूलत्व आदि आकाश गमन और संघ को सहायता करना इत्यादि है। आहारक शरीर का प्रयोजन सूक्ष्मार्थ शंकाओं का निवारण करना, जिनेन्द्र ऋद्धि दर्शन इत्यादि है। (१२२ से १२४). यदाहुः-तित्थयररिद्धिदंसणसुहमपयत्यावगाहहेडेवा। ____संसयवोच्छे अत्थं गमणं जिण पाय मूलंमि ॥१२५॥ शास्त्र के वचन हैं कि तीर्थंकर भगवन्त की समृद्धि अवलोकन करने के लिए, सूक्ष्म पदों के अर्थों का बोध कराने के लिए और संशय के उच्छेदन के लिए जिनेश्वर भगवन्त के चरण के पास गमन करना। ॥१२५॥ शापानुग्रहयोः शक्तिर्भुक्ति पाकः प्रयोजनम् । तैजसस्य कार्मणस्य पुनरन्य भवे गति ॥१२६॥ इति.प्रयोजन कृतो विशेषः ॥ तैजस शरीर का प्रयोजन शाप और अनुग्रह की शक्ति है तथा भोजन किया हो उसे पचाने की शक्ति प्राप्त करना है। कार्मण शरीर का प्रयोजन अन्य जन्म लेने में गमन करने के लिए है। (१२६) यह प्रयोजन कृत विशेष है। उत्कर्षतः सातिरेक सहस्र योजन प्रमम । औदारिकं वैक्रिय साधिकैकलक्ष योजनम् ॥१२७॥ आहारकं हस्तमानं लोकाकाशमिते उभे । समुद्घाते केवलिनः स्यातां तैजस कार्मणे ॥२८॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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