SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 122
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (८५) वैक्रियस्याहार कस्याऽसत्त्वादेकस्य चैकदा । न पंचस्युः सदा सत्त्वादन्त्य योनॆकमप्यदः ॥११६॥ स्यादेकमपि पूर्वोक्त मतान्तर व्यपेक्षया । भवान्तरं गच्छतस्तन्मते स्यात्कार्मणं परम् ॥११७॥ एक संसारी जीव को एक साथ में दो तीन अथवा चार शरीर होते हैं. पांच नहीं होते तथा एक नहीं होता। क्योंकि वैक्रिय और आहारक दोनों एक साथ में एक जीव को नहीं होते। इसलिये पांचों एक साथ शरीर नहीं होते, वैसे तेजस तथा कार्मण दोनों हमेशा होने से एक शरीर में भी नहीं होता। परन्तु पूर्व में जो मन्तातर कहा उसकी अपेक्षा से एक- वह अकेला कार्मण होता है क्योंकि जन्मान्तर में जाते जीव को तेजस तथा कार्मण दोनों नहीं होते, केवल एक कार्मण होता है। (११५-११७) इति स्वामिकृतो विशेषः॥ इस तरह स्वामि कृत विशेष है। आद्यस्य तिर्यगुत्कृष्टा गतिरारूचकाचलम् । जंघाचारण निग्रंथानाश्रित्य कलयन्तु ताम् ॥११८॥ आनन्दीश्वरमाश्रिव्य विद्या चारण खेचरान् । ऊर्ध्व चापंडकवनं तत्रयापेक्षया भवेत् ॥११६॥ _ प्रथम औदारिक शरीर की उत्कृष्ट तिरछी गति आखिर रूचक पर्वत तक होती है और वह जंघा चारण मुनियों को होती है। विद्या चारण तथा विधाधरों की वह गति आखिर नन्दीश्वर द्वीप तक होती है। सीधी ऊर्ध्व गति तो तीनों की पंडक वन तक होती है। (११८-११६) विषयो वैक्रियांगस्याऽसंख्येया द्वीप वार्धयः । महाविदेहा विषयोज्ञेय आहारकस्य च ॥१२०॥ लोकः सर्वोऽपि विषयस्तुर्य पंचमयोर्भवेत् । भवाद् भवान्तरं येन गच्छतामनुगे इमे ॥१२१॥ . इति विषय कृतो भेदः॥ वैक्रिय शरीर वाले की गति अंसख्यात द्वीप समुद्र तक होती है। आहारक की गति महाविदेह क्षेत्र तक होती है। चौथा और पांचवां तेजस और कार्मण शरीर वाले की गति सर्वलोक में होती है, क्योंकि एक जन्म से दूसरे जन्म में जाते समय सर्व प्राणियों को ये दोनों शरीर होते हैं। (१२०-१२१)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy