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________________ (८१) श्री जिनेश्वर के शरीर आदि की अपेक्षा से मनोहर पुद्गल का बना हुआ सर्वोत्तम शरीर प्रथम औदारिक' शरीर कहलाता है। (६६) क्रिया विशिष्टा नाना वा विक्रिया तत्र संभवम् । स्वाभाविक लब्धिजं च द्विविधं वैक्रियं भवेत् ॥६७॥ यत्तदेकमनेकं वा दीर्घं हस्वं महल्लधु । भवेत् दृश्यमदृश्यं वा भूचरं वापि खेचरम् ॥१८॥ नाना प्रकार की विशिष्ट क्रिया का नाम विक्रिया है। इससे होने वाला दूसरा वैक्रिय शरीर कहलाता है। इसके दो भेद हैं। स्वाभाविक और लब्धि से होता है। यह वैक्रिय शरीर एक के अनेक हो सकते हैं, ह्रस्व दीर्घ हो सकता है, बड़ा छोटा हो सकता है, दृश्य अदृश्य हो सकता है तथा भूमि पर से आकाश में अथवा आकाश में से भूमि पर संचार कर सकता है। (६७-६८) आकाशस्फटिक स्वच्छं श्रुत केवलिना कृतम् । अनुत्तरामरेभ्योऽपि कान्तमाहारकं भवेत् ॥६६॥ श्रुतावगाहाप्तामपौषध्यावृद्धिः । करोत्यदः । मनोज्ञानी चारणो .वोत्पन्नाहारकलब्धिकः ॥१०॥ तीसरा आहारक शरीर आकाश और स्फटिक रत्न के समान स्वच्छ निर्मल तथा अनुत्तर विमान के देवों से भी अधिक कान्ति वाला श्रुत केवली कृत तीसरा शरीर 'आहारक' कहलाता है। शास्त्रों के अभ्यास से आमर्ष औषधि आदि की ऋद्धि प्राप्त होने से अथवा आहारक लब्धि प्राप्ति होने से, मन: पर्यवज्ञानी अथवा चारण मुनि ऐसा आहारक शरीर बना सकता है। (६६-१००) . तैजसं चौष्णतालिंगं तेजो लेश्यादि साधनम् । कार्मणानुगमाहार परिपाक समर्थकम् ॥१०१॥ अस्मात्तपो विशेषोत्य लब्धि युक्तस्य भूस्पशः । तेजो लेश्या निर्गमः स्यादुत्पन्ने हि प्रयोजने ॥१०२॥ चौथा 'तेजस' शरीर है । तेजस अर्थात् उष्णता शक्ति वाला, तेजो लेश्या आदि की साधना वाला है और कार्मण शरीर पाचवां है। यह शरीर अनुगामी है और आहार को पचाने में समर्थ होता है । जिस प्राणी को किसी विशिष्ट तपस्या से लब्धि प्राप्त होती है उसे कार्य पड़ने पर उसके तेजस शरीर में से तेजो लेश्या निकलकर उसका उसी प्रकार का कार्य साधन कर देता है (१०१-१०२)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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