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________________ .. (७६) के तीसरे, नौंवे अथवा सत्ताईसवें विभाग में अथवा आखिर अन्तर्मुहूर्त में अगले जन्म का आयुष्यं बंधन करता है। (८७-८८) यदाहुः श्यामाचार्याः। सियति भागे सियति भागति भागे सियति भागति भागति भागे इति॥ केचित्तु सप्तविशादप्यूर्ध्वं विकल्पयन्ति वै । त्रिभाग कल्पना यावदन्त्यमन्तर्मुहूर्त्तकम् ॥८६॥ श्री श्यामाचार्य भी इसी तरह ही सत्ताईस सत्ताईस भाग करते हैं। और कई तो सत्ताईस से भी आगे बढ़कर अन्तिम अन्तर्मुहूर्त तक इन तीन विभागों की कल्पना करते हैं । (८६) असंख्यायुतिर्यंचश्चरमागांश्च नारका । सुरा शलाका पुमांसोऽनुपक्रमायुषः स्मृता ॥६०॥ असंख्यात वर्ष आयुष्य वाले मनुष्य और तिर्यंच, चरम शरीर वाले, नारकी जीव, देव तथा तिरसठ शलाका पुरुष कहलाते हैं, वे सभी निरुपक्रमी आयुष्य वाले होते हैं - ऐसा समझना। (६०) . अपरे वर्णयन्ति। तीर्थ करौपपातिकानां नोपक्रमतो मत्यः। शेषाणामुभयथा। इति तत्त्वार्थ वृत्तो॥ कर्म प्रकृति वृत्तावपि अद्धाजोगुक्कसं इतिगाथाव्याख्यानेऽभोगभूमिजेसुतिर्यक्षमनुष्येषुचत्रिपल्योपम स्थितिषूत्पन्नः पश्चादाशु सर्वाल्प.जीवितमन्तर्मुहूर्त विहाय शेषमायुः त्रिपल्योपम स्थितकं अपवर्त्तयन्ति अन्तर्मुहूर्तो नय इति॥ कईयों का ऐसा मत है कि तीर्थंकरों के तथा देवताओं की मृत्यु उपक्रम से नहीं होती, इसके सिवाय अन्यों की मृत्यु उभय प्रकार से अर्थात् सोपाक्रमी और निरुपक्रमी होती है। इस तरह "तत्त्वार्थ वृत्ति" के कर्ता कहते है। कर्म प्रकृति की टीका में और अद्धजोगुक्कस' गाथा के व्याख्यान में कहा है कि अकर्मभूमि में हुए तिर्यंच और मनुष्यों के विषय में तीन ‘पल्योपम' के आयुष्य वाला जीव उत्पन्न होकर फिर तुरन्त अल्पिष्ट अन्तर्मुहूर्त के आयुष्य को छोड़कर शेष का अन्तर्मुहूर्त . कम तीन पल्योपम की स्थिति वाला आयुष्य संक्षेप कर सकता है। सुर नैरयिकाऽसंख्य जीवितिर्यग्मनुष्यकाः । बघ्नन्ति षण्मासशेषायुषोऽग्रभव जीवितम् ॥१॥ देवता, नरकी जीव तथा असंख्यात आयुष्य वाले तिर्यंच और मनुष्यों का जब छ: महीने आयुष्य शेष रह जाता है तब वह अगामी जन्म का आयु बंधन करता है। (६१)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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