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________________ (७५) पंचेदियतिरिएसुहय गय रयणा हवंति उ सुहाओ। सेसाओ असुहाओ सुअ वन्नेगिंदिया दीया ॥६४॥ चौरासी लाख शीत आदि शुभ अशुभ योनियां हैं। इनमें असंख्यात् आयुष्य वाले मनुष्यों की और संख्यात आदि आयुष्य वाले चक्रवर्ती तथा तीर्थंकर नाम गोत्र वाली शुभ योनि जानना, इसमें भी जाति संपन्न की शुभ और अन्य की अशुभ समझना। देवों में किल्विष आदि की अशुभ और अन्यों की शुभ जानना। पंचेन्द्रिय तिर्यंचों में अश्वरत्न की तथा गजरत्न की शुभ और अन्यों की अशुभ है । उत्तम वर्ण वाले एकेन्द्रिय रत्न आदि की शुभ है। (६१-६४) देविंद चक्क वट्टित्तणाई मोत्तुं च तित्थयर भावं । अणगार भावि या विय सेसाओ अणंतसो पत्ता ॥६५॥ इति योनि स्वरूपम् ॥४॥ देवेन्द्र चक्रवर्ती तथा तीर्थंकर और अणगार - इनसे अन्य शेष सब का अनन्त बार संसार योनि में पतन हुआ है। इस तरह योनि का वर्णन सम्पूर्ण हुआ । (६५) अब पाचवां द्वार कुल संख्या के विषय में कहते हैं - कुलानि योनि प्रभवान्याहुस्तानि बहून्यपि । भवन्ति योनावेकस्यां नाना जातिय देहिनाम् ॥६६॥ कृमि वृश्चिक कीटादि नाना क्षुद्रांगिनां यथा । एक गोमयपिंडान्तः कुलानि स्युरनेकशः ॥६७॥ कोटयेका सप्तनवतिर्लक्षाः सार्धा भविन्त हि । सामान्यात्कुल कोटीनां विशेषो वक्ष्यतेऽग्रतः ॥१८॥ जिस योनि में उत्पन्न हो वह कुल कहलाता है । एक योनि के विषय में नाना प्रकार की जाति वाले प्राणियों के अनेक कुल होते हैं। उदाहरण के तौर पर-छान के पिंड में कृमि, कीड़े, बिच्छु आदि अनेक प्रकार के क्षुद्र प्राणियों के अनेक कुल होते हैं । आम तौर पर ऐसे कुल एक करोड़ साढ़े सत्तासी लाख होते हैं। इस विषय में आगे विशेष कहा जायेगा। (६६ से ६८) इति योनि कुलस्य रूपं तत्संवृतत्वादि च ॥५॥६॥ इस तरह कुल के विषय में समझ लेना । छठे द्वार योनि के संवृतत्व आदि के विषय में भी कहा गया है। भवस्थितिस्तद भवायुर्द्विविधं तच्च कीर्तितम् । सोपक्रमं स्यात्तत्राद्यं द्वितीयं निरूपक्रमम् ॥६६॥
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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