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________________ (६६) ततो निबद्धायुर्योग्या याति तां गतिमन्यथा । अबद्धायुरनापूर्ण तदाबाधो व्रजेत्क्व स ॥३३॥ इस तरह आयुष्य-बांधकर ही मरकर प्राणी योग्य गति में जाता है। आयुष्य बन्धन किए बिना और अबाधाकाल पूर्ण किये बिना जाता भी नहीं है। (३३) तथोक्त प्रज्ञापना वृत्तौ यस्मादागामि भवायुर्बध्ध्वा म्रियन्ते सर्वदेहिनो नाबध्ध्वा । तच्च शरीरेन्द्रिय पर्याप्तिभ्यां पर्याप्तानां बन्धमायाति नापर्याप्तानाम् ॥ प्रज्ञापना सूत्र - पन्नवणासूत्र में भी कहा है कि- सर्व प्राणी मात्र आगामी जन्म का आयुष्य बांधकर ही मरता है, उसके बिना नहीं मरता । वह आयुष्य बन्धन भी जिसने शरीर और इन्द्रिय-पर्याप्त पूर्ण की हों उसे ही प्राप्त होता है, अन्य को नहीं होता । समयेभ्यो नवभ्यः स्यात्प्रभृत्यन्तर्मुहूर्त्तकम । समयोनि मुहूर्त्तान्तमसंख्यातविधं यतः ॥३४॥ ततः सूक्ष्म क्षमादीनामन्तर्मुहूर्त्त जीविनाम् । अन्तर्मुहूर्ताने कत्वमिदं संगतिमं गति ॥३५॥ युग्मम्। कम से कम नौ समय अर्थात् ' अन्तर्मुहूर्त' में एक समय जहां तक कम हो वहां तक यह ‘अन्तर्मुहूर्त्त' असंख्य प्रकार का कहलाता है और इससे अन्तर्मुहूर्त्त तक जीते सूक्ष्म पृथ्वी कार्यों का अन्तर्मुहूर्त अनेकत्व वाला कहलाता है। वह योग्य है। (३४-३५) . उत्पत्तिक्षण एवैता स्वा स्वा युगपदात्मना । आरभ्यन्ते संविधातुं समाप्यन्ते त्वनुक्रमात् ॥३६॥ तद्यथा- आदावाहार पर्याप्तिस्तत: शरीर संज्ञिता । ततइन्द्रिय पर्याप्तिरेव सर्वा अपि क्रमात् ॥३७॥ आत्मा अपनी-अपनी इन सब पर्याप्तियों को एक ही समय में - उत्पत्ति समय में ही बनाने लगता है और फिर अनुक्रम समाप्त करता है । वह इस प्रकारपहले आहार पर्याप्ति समाप्त करे, फिर शरीर पर्याप्ति समाप्त करता है, उसके बाद इन्द्रिय संज्ञिता अर्थात् इन्द्रिय पर्याप्ति समाप्त करता है । इस तरह अनुक्रम से छः पर्याप्ति समाप्त करता है। (३६-३७)
SR No.002271
Book TitleLokprakash Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPadmachandrasuri
PublisherNirgranth Sahitya Prakashan Sangh
Publication Year2003
Total Pages634
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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