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श्री गुणानुरागकुलकम् समझाने की बहुत आवश्यकता है, परन्तु हितशिक्षा देने पर भी यदि कषाय भाव की बहुलता होती हो, तो मध्यस्थभाव रखना ही लाभकारक है। अतएव निन्दा विकथा आदि दोषों को सर्वथा छोड़कर निन्दक और उद्धत मनुष्यों के ऊपर भी मध्यस्थभाव रखना चाहिये और यथाशक्ति समभावपूर्वक हर एक प्राणी को हित शिक्षा देना चाहिये।
इस प्रकार कलहभाव को छोड़ने से मनुष्यों के हृदय भवन में चार सद्भावनाएँ प्रगट होती हैं और इन सद्भावनाओं के प्रभाव से मनुष्य सद्गुणी बनता है।
सर्वत्र ‘गुणानुराग' ही प्रशंसनीय है। इससे इसी को धारण करना चाहिये - ते धन्ना ते पुन्ना, तेसु पणामो हविज्ज मह निच्चं। . जेसिं गुणाणुराओ, अकित्तिमो होइ अणवरयं ॥३॥ . ते धन्यास्ते पुण्यास्तेषु प्रणामो भूयान्मम नित्यम्। येषां गुणानुरागोऽ कृत्रिमो भवत्यनवरतम् ॥३॥ ,
___ शब्दार्थ - (ते) वे पुरुष (धन्ना) धन्यवाद देने योग्य हैं (ते) वेही (पुन्ना) कृतपुण्य हैं (तेसु) उनमें (मह) मेरा (निच्चं) निरन्तर (पणामो) नमस्कार (हविज्ज) हो। (जेसिं) जिन्हों के हृदय में (अकित्तिमो) स्वाभाविक (गुणाणुराओ) गुणानुराग (अणवरयं) हमेशा (होइ) होता है - बना रहता है।
भावार्थ - जिन पुरुषों के हृदय में दूसरों के गुणों पर हार्दिक अनुराग बना रहता है, वे पुरुष धन्यवाद देने योग्य है और कृतपुण्य हैं तथा वे ही नमस्कार करने योग्य हैं।
विवेचन - गुणानुरागी महानुभावों की जितनी प्रशंसा की जाय उतनी ही थोड़ी है। इसलिये जो दूसरों के गुणों को देखकर