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श्री गुणानुरागकुलकम्
__ शास्त्रकारों ने ध्यान के विषय में लिखा है कि वीतराग भगवान् या उपचार से उनकी तदाकार प्रतिमा का ध्यान करने से आत्मा वीतराग बनता है और सरागी का ध्यान करने से सरागी बनता है। क्योंकि - 'यथा सङ्गों तथा रङ्ग' जैसा सङ्ग (आलम्बन) प्राप्त होता है, वैसा ही आत्मीय भाव उठता है और उसीके अनुसार उसका आचरण या स्वभाव बना रहता है। अतएव परमेश्वर की वन्दन पूजन रूप आज्ञा को आराधन करने वाला पुरुष तीर्थनाथ के पद को प्राप्त करता ही है। कहा भी है कि - वीतरागं स्मरन् योगी, वीतरागत्वमश्नुते। ईलिका भ्रमरी भीता, ध्यायन्ती भ्रमरी यथा ॥१॥
जिस प्रकार भ्रमरी से डरती हुई ईलिका, भ्रमरी के ध्यान करने से भ्रमरी के समान बन जाती है, उसी प्रकार यह आत्मा वीतराग (तीर्थनाथ) का ध्यान करता हुआ वीतराग पद को धारण करता है। इससे हितेच्छु पुरुषों को परहितरत, मोक्षमार्ग दाता, इन्द्रों से पूजित, त्रिभुवनजनहितवाञ्छक और सामान्य केवल- ज्ञानियों के नायक तीर्थनाथ का वन्दन पूजन अवश्य करना चाहिये। क्योंकि सब उत्तममंङ्गलों का मुख्य कारण एक आज्ञापूर्वक तीर्थनात के चरणयुगल का वन्दन पूजन ही है।
नमस्कार करने का मुख्य हेतु यह है कि - निर्विघ्न ग्रन्थ समाप्ति और सर्वत्र शान्ति प्रचार हो अर्थात् 'श्रेयांसि बहुविघ्नानि' इस उक्ति की निरर्थकता हो, किन्तु यह बात तभी हो सकती है कि जब आज्ञा की आराधना पूर्वक भाव नमन या पूजन किया गया हो।
सब श्रेयकार्यों की साधिका एक जिनाज्ञा ही है, क्योंकि शास्त्रों में जगह-जगह पर 'आणा-मूलो धम्मो' यह निर्विवाद वचन