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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् "जहाँ द्वेष, निन्दा और अनादर वर्तमान है, वहाँ स्वार्थ रहित प्रेम नहीं रहता, प्रेम तो उसी हृदय में वास करता है जो निन्दा रहित हो । जो मनुष्य ईश्वरीय प्रेम प्राप्त करने का प्रयत्न करता है वह सर्वथा निन्दा करने के स्वभाव को जीत रहा है, क्योंकि जहाँ पवित्र आत्मीय ज्ञान है वहाँ निन्दा नहीं रह सकता। केवल वही मनुष्य सच्चे प्रेम का अनुभव कर सकता है और उसी हृदय में सच्चा और पूर्ण प्रेम रह सकता है, जो निन्दा करने के लिए सर्वथा असमर्थ है। स्वगच्छ, या परगच्छ के गुणी साधुओं पर अनुराग तउ परगच्छि सगच्छे, जे संविग्गा बहुस्सुया मुणिणो । तेसिं गुणाणुरायं, मा मुंचसु मच्छरम्पहओ ॥ २६ ॥ २१४ शब्दार्थ - (तउ) इसलिए (परगाच्छि संगच्छे) परगच्छ और स्वगच्छ में (जे) जो (संविग्गा) वैराग्यवान् (बहुस्सुया) बहुश्रुत (मुणिण्रो) मुनि हों (तेसिं) उनके (मच्छरप्पहओ) मात्सर्यहत होकर तूं (गुणाणुरायं) गुणों का अनुराग (मा) मत (मुंचसु) छोड़। भावार्थ - स्वगच्छ, या परगच्छ में जो वैराग्यवान् और बहु (विद्वान) साधु हों उनके गुणों पर मत्सरी बनकर अनुराग को मत हटाओ । विवेचन - स्वगच्छ, या परगच्छ में जो जो वैराग्यवान् बहुश्रुत और क्रियापात्र साधु हैं, उनके साथ सहानुभूति रखने से ही सामाजिक उन्नति भले प्रकार हो सकती है। जो लोग गच्छ सम्बन्धी छोटी-छोटी बातों पर वाद विवाद चलाकर राग द्वेष का पोषण करते हैं और एक दूसरे को अवाच्य शब्द कहकर, या लिखकर संतुष्ट होना चाहते हैं वे वास्तव में धार्मिक उन्नति की सघन नींव का सत्यानाश करते हैं। जब तक गुणीजनों के गुणों का बहुमान ने किया जाएगा, अर्थात् - संकुचित विचारों को छोड़कर यथाशक्ति
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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