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श्री गुणानुरागकुलकम् का आचरण करते हैं, उनको उभय लोक में सुख समाधि नहीं हो सकती और न कर्मबन्ध का स्रोत ही घटता है। जो उक्त दोषों को . छोड़कर छह अट्ठमादि तपस्या, क्षमा संयम में रक्त, क्षुधा, तृषा आदि परिषह सहन में उद्यद रहते हैं, वे भगवान की आज्ञाओं की भले प्रकार आराधन कर मोक्षगति को सहज ही में प्राप्त करते हैं। अतएव साधुओं को चारित्र अंगीकार कर अनाचारों से अपनी आत्मा को... बचाने में प्रयत्नशील रहना चाहिए।
कदाचित् उग्र संयम पालन करते न बने, तो स्त्रियों के परिचय से तो सर्वथा अलग ही रहना चाहिए, क्योंकि सुशील मनुष्य भी सामान्य से सज्जन और कृतपुण्य समझा जाता है। अनाचार सेवन करना महापाप है, दूसरे गुणों से हीन होने पर भी यदि अखंड ब्रह्मचर्य : होगा तो उससे गुरुपद की योग्यता प्राप्त हो सकेगी, ब्रह्मचर्य में गड़बड़ हुईतो वह किसी गुण के लायक नहीं रह सकता।
साधुधर्म को स्वीकार करके जो गुप्त रूप से अनाचार सेवन, और मायास्थान सेवन करते हैं, उनसे गृहस्थधर्म लाख दरजे ऊँचा है, इसी से शास्त्रकार कहते हैं कि यदि साधुता तुम्हारे से न पाली जा सकती हो तो गृहस्थ बनो, अगर तुम्हें ऐसा करने में लज्जा आती हो तो निष्कपटभाव से लोगों के समक्ष यह बात स्पष्ट कहो कि मैं साधु नहीं हूँ, परन्तु साधुओं का सेवक हूँ, जो उत्तम साधु है उन्हें धन्य है, मैं तो उनके चरणों के रज की भी बराबरी नहीं कर सकता। मानसिक विकारों और तज्जन्य प्रवृत्तियों को रोककर संयम परिपालन करना यह सर्वोत्तम मार्ग है और इसी मार्ग से आत्मिक अनन्तशक्तियों का विकाश होकर उत्तम प्रकार की योग्यता प्राप्त होती है।