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श्री गुणानुरागकुलकम्
गुणानुरागी मुनि के प्रशंसाजनक वचनों को सुनकर भक्त लोग चकित हो गये और मुक्त कंठ से उसकी प्रशंसा करने लगे। इसी अवसर में नगर के बाह्योद्यान में कोई अतिशय ज्ञानी मुनिवरेन्द्र का पधारना हुआ, सब लोग वन्दन करने को गये। योग्य सभा के बीच में मुनिवर ने मधुर वचनों से कहा कि -
. भव्यो ! "किसी शुभ कर्म के उदय से यह अत्यन्त दुर्लभ मनुष्य जन्म धारण करके तथा उत्तम कुल और उत्तम धर्मादि सामग्री पा करके तुमको चाहिये कि जो वस्तुएँ छोड़ने योग्य हैं, उन्हें छोड़ना, जो करने योग्य कर्म हैं, उन्हें करना, जो प्रशंसा करने योग्य हैं, उनकी प्रशंसा करना और जो सुनने योग्य है, उन्हें अच्छी तरह से सुनना। मन, वचन और काया संबंधी ऐसी प्रत्येक क्रिया, जो कि परिणामों में थोड़ीसी भी मलिनता उत्पन्न करने वाली, अतएव मोक्ष की रोकने वाली हो, अपनी भलाई चाहने वालों को छोड़ देनी चाहिये। जिनका अंतरात्मा निर्मल हो गया है, उन्हें तीन लोक के नाथ जिनेन्द्र देव, उनका निरूपण किया हुआ जैन धर्म और उसमें स्थिर रहने वाले, इन तीनों की निरन्तर प्रशंसा करनी चाहिये।" . .. मुनिवर के आत्मोद्धारक सुभाषित वचनों को सुनकर श्रोता
अत्यानन्दित हुए। अवसर पाकर भक्त लोगों ने पूछा कि भगवन् ! ‘गाँव में जो दो साधु ठहरे हुए हैं, उनमें लघुकर्मी कौन है ? अतिशय ज्ञानी ने कहा कि जो साधु निन्दा करने वाला लोकैषणा मग्न और दम्भी मेढ़ी पर ठहरा है, उसके भव बहुत है, अर्थात् वह संसार में अनेक भव करेगा और जो गुणप्रेमी सरल स्वभावी साधु नीचे ठहरा हुआ है, वह परिमित भव में कर्म मुक्त होकर मुक्ति मंदिर का स्वामी बनेगा।