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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् १८५ कोई यही कहेगा कि सांसारिक कार्य के लिए जाने वाला पुरुष गंगाजल की दशा को प्राप्त हो सकता है, परन्तु कोई दृढ़धर्मी जगत् मान्य पुरुष आर्य धर्म के तत्वों का प्रचार करने के लिये जाय, तो क्या हरकत है ? इसका उत्तर यह है कि सर्प मणि के समान जो पूर्ण (जानकार) है, उनके वास्ते कोई प्रतिबंध नहीं है, पूर्ण मनुष्य चाहे जहाँ जा सकता है। सर्प और मणि का एक ही स्थान में जन्म तथा विनाश होता है, अर्थात् साथ ही जन्म और विलय है, परन्तु सर्प का विष मणि में और मणि का अमृत सर्प में नहीं आ सकता, क्योंकि दोनों अपने-अपने विषय में पूर्ण हैं। इस प्रकार मनुष्य जो पूर्ण हो, तो वह चाहे जिस देश में जा सकता है, उसका बिगाड़ कहीं नहीं हो सकता, लेकिन अपूर्ण तो सर्वत्र अपूर्ण ही रहता है। . अपूर्ण का उत्साह क्षणिक और विचार विनश्वर होता है तथा उसके हृदय में धर्म वासना हल्दी के रंग समान होती है। आर्य भूमि में हजारों प्राणी जंगली है, उनको विदेशी प्रजा धन, स्त्री आदि का लालच देकर स्वधर्मी बना रही है। इसलिये उनको धर्म भ्रष्टता से उवारना हर एक आर्यधर्मी पुरुषों का काम है। अर्हन्नीति में विदेशगमन का निषेध किया है, उसका खास हेतु धर्महानी ही है। अतएव पूर्ण मनुष्य के बिना अपूर्ण मनुष्यों को निषिद्ध देश में भूलकर भी न जाना चाहिये। बुद्धिमानों को निषिद्धकाल की मर्यादा का भी त्याग करना जरूरी है। रात्रि का समय कितने एक पुरुषों के लिए बाहर फिरने का नहीं है, अर्थात् रात्रि में बाहर फिरने से कलङ्कित होने की और चौरादिक की शंका पड़ती है। चौमासा में प्रवास या यात्रा भी न करना चाहिये। इस मर्यादा का उल्लंघन करने से अनेक
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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