SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 243
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १७८ ___ श्री गुणानुरागकुलकम् करना उत्तम है। अजीर्ण न हो तो भी थोड़ा भोजन करना अच्छा है, क्योंकि यथाग्नि खाने से भोजन रस वीर्य का उत्पादक होता है। 'यो मितं भुङ्क्ते स बहु भुङ्क्ते" अर्थात् जो थोड़ा खाता है, वह बहुत खाता है, इसलिये अजीर्ण में भोजन नहीं करने वाला सुखी रहकर गुणवान बनता है। १६. काले भोक्ता च सात्म्यतः - अर्थात् प्रकृति के अनुकूल यथासमय सात्म्य भोजन करने वाला पुरुष निरोगी रहकर गुणी और धर्मात्मा बनता है। जो पान, आहार आदि प्रकृति के अनुकूल सुख के लिये बनाया जाता है, वह 'सात्म्य' कहलाता है। बलवान पुरुषों के लिए तो सब पथ्य ही है, परन्तु योग्य रीत से योग्य समय में प्रकृति योग्य पदार्थों का सेवन किया जाय, तो शरीर की स्वास्थता सचवा सकती है और शरीर स्वस्थता से धर्म साधन तथा सद्गुणोपार्जन में किसी तरह की बाधा नहीं पड़ सकती। १७. 'अन्योन्याप्रतिबंधेन, त्रिवर्गमपि साधयेत्' - अर्थात् परस्पर विरोध रहित धर्म, अर्थ और कामरूप - त्रिवर्ग की साधना करने वाला पुरुष उत्तम योग्यता प्राप्त कर सकता हैं। जिस पुरुष के दिन त्रिवर्ग शून्य व्यतीत होते हैं, वह लुहार की धमनी की तरह गमनागमन करता हुआ भी जीता नहीं है, अर्थात् उसे जीवन्त अथवा पशु तुल्य समझना चाहिये। धर्म पुण्यलक्षण अथवा संज्ञान रूप है, पुण्य लक्षण धर्म संज्ञान लक्षण धर्म.का कारण है, कार्य को उत्पन्न कर कारण चाहे पृथक हो जाय, परन्तु धर्म सात कुल को पवित्र करता है। कहा भी है कि
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy