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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् ११७ ऐश्वर्य आदि के अभिमान से दूसरों को तुच्छ समझने को 'मद' कहते हैं। दूसरों को दुःखी देखकर और द्यूत, क्रीड़ा, मृगया (शिकार) आदि कुकार्यों में आनन्दित होने को 'हर्ष' कहते हैं। ____काम से ब्रह्मचर्य का, क्रोध से क्षमा महागुण का, लोभ से सन्तोष का, मोह से विवेक का, और हर्ष से नीतिमार्ग का विनाश होता हैं। अतएव गुणवान् बनने का मुख्य उपाय यही है कि सर्व प्रकार से अकषायी भाव को धारण कर निरवद्य क्रियानुष्ठा न करना। आत्मप्रबोध ग्रन्थ के तीसरे प्रकाश में लिखा है कि - तत्तमिणं सारमिणं, दुवालसंगीऍ एस भावत्यो। जं भवभमणसहाया, इमे कसाया चइज्जति ॥१॥ . भावार्थ. - समस्त द्वादशाङ्ग वाणी का तात्पर्य यही है, सब धर्मों का तत्त्व भी यही है और निर्मल संजमपरिपालन का सार भी यही है की - संसार पर्यटन में सहायता देने वाले क्रोधादि कषायों का हर प्रकार से त्याग करना चाहिए। . . इसलिए शान्ति महागुण को धारण करने में सदा उद्यत रहना, क्योंकि शान्तस्वभाव से क्रोध का, विनय भाव से मान का, सरलता से. माया का, और सन्तोष महागुण से लोभ का नाश होता है। ग्रन्थकारों का यहाँ तक मन्तव्य है कि - एक एक कषाय का जय करने से क्रमशः सब का जय होता चला जाता है और अन्त में अकषायित्व भाव से संसार का अन्त हो जाता है। . श्री आचाराङ्गसूत्र के तीसरे अध्ययन के ४ चौथे उद्देशे में लिखा है कि - - जे कोहदंसी से माणदंसी, जे माणदंसी से मायदंसी, जे मायदंसी से लोभदंसी, जे लोभदंसी से पेज्जदंसी, जे पेज्जदंसी से
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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