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श्री गुणानुरागकुलकम्
११५ शास्त्रकारों ने कषायों के भेद इस प्रकार दिखायें हैं कि -
१. अनन्तानुबन्धी - क्रोध, मान, माया और लोभ। 'अनन्तानुबंधी' उसको कहते हैं जिसको उदय से सम्यक्त्वादि सद्धर्म की प्राप्ति न होवे और जो कदाचित प्रथम सम्यक्त्व आया हो तो भी वह नष्ट हो जावे। अनन्तानुबन्धी क्रोध-पर्वत की रेखा समान, मान-पत्थर के स्तंभ समान, माया-कठोर बाँस की जड़ समान, और लोभ कृमि के रंग समान है। यह कषाय उत्कृष्ट से जावज्जीव तक रहता है, इसके उदय से देव, गुरु, धर्म के उपर यथार्थ श्रद्धा नहीं होने पाती और इस के उदय से बारंबार चार गति के दुःख प्राप्त होते हैं।
२. अप्रत्याख्यानी - क्रोध, मान, माया और लोभ। 'अप्रत्याख्यानी' उसको कहते हैं जिसमें विरति रूप परिणाम नहीं हो और समकित की प्राप्ती होने पर भी देशविरति का उदय न हो। अप्रत्याख्यानी क्रोध पृथ्वी की रेखा समान, मान अस्थिस्तंभ समान, माया. मेंढकश्रृंग समान, और लोभ-नगर खाल (खात) के कीचड़ समान है। यह कषाय उत्कर्ष से एक वर्ष पर्यन्त रहता है, और तिर्यग्गति का निबंधक, एवं व्रतोदय का रोधक है।
३. प्रत्याख्यानी - क्रोध, मान, माया और लोभ। 'प्रत्याख्यानी' उसको कहते हैं जिसमें चारित्र धर्म का नाश हो जाए : प्रत्याख्यानी क्रोध रेत की रेखा समान, मान काष्ठ स्तंभ समान, माया-गोमूत्र समान और लोभ गाड़ी के खंजन (कीटा) समान है। इसकी स्थिति उत्कृष्ट से चार महीने की है और इससे मनुष्य गति मिलती है।