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श्री गुणानुरागकुलकम् सम्यक्त्व दर्शन की शुद्धि नहीं हो सकती, क्रोध के योग से अधोगति - नरक, तिर्यश्च, आदि नीच गति का जाल प्राप्त होता है, संसार में सभी लोग क्रोध को चंडाल के बराबर कहते हैं, जिसके सम्पर्क से मनुष्य अशुचि हो जाता है, गुस्सेबाज मनुष्य गाली गुप्ता देकर कंकास (कलह) के वशवर्ती होता है, क्रोध रूप अज्ञान के सबब से सज्जन पुरुष भी दुर्जन हो जाता है, इसलिए महानुभावों! क्रोध सर्वथा त्याग कर देना चाहिए। क्योंकि यह अनेक सन्तापों का स्थान है। . कहा भी है कि -
आप तपे पर संतपे, धन नी हानि करेह। कोह पड्ढे देह घर, तिन्नि विकार धरेह ॥१॥
देह - शरीर रूप घर के अन्तर उठा हुआ क्रोध अपने को क्लेश, और दूसरों को सन्ताप तथा बाह्याभ्यन्तर धन की हानि रूप : तीन विकार पैदा करता है। यह बात अनुभव सिद्ध भी है कि - मनुष्य को जब क्रोध उत्पन्न होता है तब वह थर-थर काँपने लग जाता है, और उसके सारे शरीर पर पसीना या ललाई चढ़ जाती है, यहाँ तक कि उस समय में उसके सामने जो अत्यन्त प्रिय मित्र भी कोई आ जाए तो भी वह शत्रुभूत मालूम होता है। इसीसे कहा जाता है कि - 'क्रोधो नाम मनुष्यस्य शरीराद् जायते रिपुः' मनुष्यों के शरीर से ही क्रोध रूप पैदा होता है जिससे धर्म और कुल कलंकित हो जाता है। क्योंकि 'क्रुद्धो हन्याद् गुरुनपि' अर्थात् क्रुद्ध मनुष्य अपने गुरु को भी मारता है। इसलिए रोष में जो बुद्धि पैदा होवे उसका अवश्य त्याग करना श्रेष्ठ है, क्योंकि किंपाकफल की तरह क्रोध का परिणाम भी अनिष्टकर है।
___ शास्त्रकारों ने इस विषय में क्रोधफलसंदर्शक अनेक दृष्टान्त दिए हैं। जैसे 'अच्चंकारीभट्टा' ने क्रोध के सबब से नाना दुःखों १ जहाँ तहाँ; २ अब भी; ३ तृप्त हुई