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________________ ९० श्री गुणानुरागकुलकम् को भी पिता के संग बहला-फुसला कर, एक-एक पैसे का लालच दे लकड़ी बीनने और बेचने को भेजा और आप एक पड़ोसिन के यहाँ आटा पीसने की युक्ति लगा लीं। यह लकड़हारा पकी हुई रोटी लाता था, परन्तु उस दिन भी जब एक-एक पैसे देकर चार पैसे बच रहे और घर ही भोजन बनाने से सबका पेट उसी में भर गया, जिसमें और दिन भूखे रहते थे, तब उन बचे हुए पैसों की इसने रुई मँगाई और उसे अपनी पड़ोसिन के खाली चर्खे से कात-कात कर सूत बेचा। इसी प्रकार महीने में इसके पास एक रुपया बच गया। उसकी उसने लकड़हारे को एक कुल्हाड़ी मोल दिलवा दी और कहा कि . बीनने से तो ईंधन थोड़ा और छोटा-छोटा आता है। इस कुल्हाड़ी से काट-काट कर अच्छी मोटी-मोटी लकड़ी लाया करो, जो अधिक दामों की बिके और कुछ पड़ोसिन से उधार लेकर उससे सुई, कतरनी, पेचक और कपड़ा मँगवा लिया। उससे ही आप टोपियाँ बनाने लगी। उधर दस-बीस घरों से मेल-मिलाप कर लिया। जब कोई वस्तु चाहिये, माँग लावे और काम निकाल कर दे आवे। किसी के लड़के की टोपी सी दे और किसी का कुर्ता। खाँसी और दस्तों की औषध बनाकर रख ली और सब को बाँटने लगी। इससे तो यह रानी सब की बहुत ही यानी बन गई। लकड़ी अब पाँच-छह आने की नित्य बिकने लगीं। दो-दो, तीन-तीन आने की टोपियाँ बिकने लगीं, थोड़े ही दिन में दस पाँच रुपए जुड़ गए। अब इसने रसोइ के बर्तन खरीदे और रहने का मकान भी लीप-छाव कर स्वच्छ किया, जिससे कि बाहर से आने वालों को बैठने का सुभीता हो गया। आप भी टोपियाँ आदि बनाती थी और पड़ोसिनों की लड़कियों को भी बनाना सिखाती थी। इसके
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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