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________________ ८५ श्री गुणानुरागकुलकम् सब कोई रहता है और जो दूसरों के अवगुणों को ही देखा करता है, उससे सारा संसार पराङ्मुख रहता है। अतएव जिस बात के कहने से दूसरों को अप्रीति होती हो। यदि वह सत्य भी हो, तो उसे न बोलो, क्योंकि वैसा वचन अनेक विपत्तियों का पैदा करने वाला है, इससे दूसरों के विद्यमान व अविद्यमान दोषों को छोड़कर नीचे लिखे सुशिक्षावचनों को धारण करना चाहिये। १. "सच्चरित्र बनो, धार्मिक बनो, शिष्ट बनो, क्योंकि जब तुम मृत्यु शय्या पर होगे, तो शुभ कार्यों के सिवाय और कोई शांति न दे सकेगा।" २. “जो वस्तु उत्तम होती है, उसका शीघ्र मिलना भी कठिन होता है। इसलिये उत्तमता की खोज में यदि कठिनता पड़े, तो घबराना नहीं चाहिये।". ३. "मनुष्यों के साथ व्यवहार करने में सदा न्याय और निष्पक्षता का विचार रक्खो और उनके साथ वैसा ही वर्ताव करो, जैसा कि तुम अपने लिये उनसे चाहते हो।" ... ४. "जो काम तुमको सोंपा गया है, उसको धर्म और सच्चाई से करो। उस मनुष्य के साथ कभी विश्वासघात न करो, जो तुम्हारे ऊपर भरोसा रखता है। चोरी करने की अपेक्षा विश्वासघात करना महापाप है।" ५. "अपनी बड़ाई अपने मुंह से मत करो, नहीं, तो लोग तुमसे घृणा करने लग जाएँगे और न दूसरों को तुच्छ समझो, क्योंकि इसमें बड़ा भय है।" ६. “कठिन उपहास मित्रता के लिए विष है; क्योंकि जो अपनी जिह्वा को नहीं रोक सकता, अतं में वह दुःख पाता है।"
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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