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________________ श्री गुणानुरागकुलकम् ७९ चिताऽऽकाश में परिपूर्ण अज्ञानान्धकार घटा को दूर कर ज्ञानरूपी सूर्य का प्रकाश है। वाचकवर्ग ! यह सत्संग की ही महिमा है कि नाना वृक्षलताओं से सुशोभित, विविध फल पुष्पों से प्रफुल्लित, रमणीय अरण्य में चन्दन वृक्ष के समीपवर्ती अन्य पादप भी चन्दन वृक्ष की अपूर्व सुगंध स चन्दनवृक्षवत् हो जाते हैं। सत्संगति की ही महिमा है कि - जो मणि सर्प के मस्तक पर रह कर नाना चोटों को खाया करती है, पुनः वही राजा के मुकुट में वास कर सुशोभित हो सत्कार का भाजन बनती है। .सत्संगति की ही महिमा का प्रताप है कि जो पुष्प अधम माली के हाथ से लालित पालित हुआ भी भगवान के शरण में जाकर सबका आदरणीय होता है। जो लोहा अधम पुरुषों हाथ में रहकर कभी अग्नि में जलाया जाता है, कभी मुद्गरों से श्रीटा जाता है और रात्रि दिवस असंख्य जीवों की हिंसा करने में 'लगा रहता है, परन्तु उसको कहीं पारस पत्थर के साथ समागम हो जाय, तब वह सुवर्णमय हो कर नृपतिवरों के करकमलों में प्रतिदिन कङ्कण कुंडलादि पदवी पाकर विलास किया करता है। इसी से कहा है कि "पारस और सत्संग में बड़ो अन्तरो जान। वह लोहा कञ्चन करे, वह करे सन्त समान ॥" _ सत्संग के विषय में एक कवि ने भी वर्णन किया है कि - यदि सत्सङ्गनिरतो, भविष्यसि भविष्यसि । यदि दुःसङ्गविषये, पतिष्यसि पतिष्यसि ॥१॥ काचः काञ्चनसंसर्गाद, धत्ते मुक्ताफलद्युतिम् । तथा सत्सन्निधानेन, मूखों याति प्रवीणताम् ॥२॥
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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