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________________ ६० श्री गुणानुरागकुलकम् में बहुत समझाया जा सकता है, इसलिये इस गुणवाला पुरुष सुशिक्षणीय होने से अल्पसमय में धार्मिक तत्त्वों का पारगामी हो जाता है और इसी से वह धर्म के योग्य भी होता है, किन्तु मत्सरी इस गुण से रहित होने से धर्म के योग्य नहीं होता। पाठकगण ! पूर्वोक्त सद्गुणों वाला मनुष्य अपनी योग्यता से धार्मिक रहस्यों को प्राप्त कर सकता है, परन्तु ईर्ष्यालु मनुष्यों में पूर्वोक्त सद्गुणों का बिलकुल अभाव होता है, इससे वह धार्मिक रहस्यों की प्राप्ति से शून्य रहता है। अतएव बुद्धिमानों को अपनी योग्यता बढ़ाने के लिए मात्सर्य दुर्गुण को सर्वथा छोड़ ही देना चाहिए। इस भव में किये हुए अभ्यास के अनुसार गुण या दोषों की . परभव में भी प्राप्ति होती है - जं अब्मसेइ जीवो, गुणं च दोसं च इत्थ जन्मम्मि। तं परलोए पावइ, अन्मासेणं पुणो तेणं ॥९॥ यमभ्यसेञ्जीवो, गुणं च दोषं चाऽत्र जन्मनि। . , तं परलोके प्राप्नोत्य - भ्यांसेन पुनस्तेनु ॥९॥ शब्दार्थ - (जीवो) आत्मा (इत्थ) इस (जम्मम्मि) जन्म के विषे (जं) जिस (गुणं) गुण (च) और (दोसं च) दोष का (अब्भसेइ) अभ्यास रखता है - सीखता है (तेणं) उस (अब्भासेणं) अभ्यास से (तं) उस गुण और दोष को (परलोए) परलोक में (पुणो) फिर (पावइ) पाता है। भावार्थ - यह आत्मा इस जन्म में जिन गुण और दोषों का अभ्यास रखता है, उन्हीं को भवान्तर में भी पाता है, अर्थात् इस जन्म में किए हुए अभ्यास के अनुसार अन्य जन्म में भी गुण और दोष का भाजन बनता है।
SR No.002268
Book TitleGunanurag Kulak
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJayprabhvijay
PublisherRajendra Pravachan Karyalay
Publication Year1997
Total Pages328
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size6 MB
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