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श्री गुणानुरागकुलकम् मनुष्य हजारों विपत्तियाँ होने पर भी अकार्य में प्रवृत्त नहीं होता, .. इससे वह धर्म के योग्य हो सकता है।
१०. दयालुता - सब जीवों के ऊपर करुणाभाव रखना और जो हीन-दीन दुःखी जीव है, उनके दुःख हटाने का प्रतीकार करना 'दयालुता' कहाती है। दयालु स्वभाव वाला ही मनुष्य धर्म के योग्य है। सर्वज्ञ भगवन्तो ने अहिंसा धर्म को सबसे उत्तम बताया है। जैसे पर्वतों में मेरु, देवताओं में इन्द्र, मनुष्यों में चक्रवर्ती, ज्योतिष्को में चन्द्र, वृक्षों में कल्पवृक्ष, ग्रहों में सूर्य, जलाशयों में सिंधु और देवेन्द्रों में जिनराज उत्तम हैं। उसी प्रकार समस्त व्रतों में श्रेष्ठ पदवी को अहिंसा ही प्राप्त करती है, अर्थात् अहिंसा ही सर्व से उत्तम है, क्योंकि जिस धर्म में दया नहीं, वह धर्म ही नहीं है।
दयालु पुरुष ही सर्वत्र समदृष्टी होने से आदेयवचन, पूजनीय, कीर्तिवान, परमयोगी और परोपकारी आदि शब्दों से श्लाघाऽऽस्पद होता है और महात्मा गिना जाता है, क्योंकि दयालु मनुष्य के पास धर्मेच्छु लोग निर्भय होकर धर्म प्राप्त करते हैं; जबकि शांति में लीन योगिराजों को इतर जीव देखते हैं, तब वे भी जन्मजात, वैरभाव को जलाञ्जलि दे देते हैं, इसलिए दयालु स्वभाव ही धर्म की योग्यता को बढ़ा सकता है, जिस प्रकार शस्त्र रहित सुभट, विचारहित मंत्री, नायक रहित सेना, कला शून्य पुरुष ब्रह्मचर्यरहीन व्रती, विद्याहीन विप्र, गन्धहीन पुष्प, पतितदन्त मुख और पातिव्रत्य धर्मरहिता स्त्री, शोभा को प्राप्त नहीं होते हैं, उसी प्रकार दयालु स्वभाव के बिना शुद्धकर्म की शोभा नहीं हो सकती।
११. मध्यस्थ सौम्य दृष्टि - पक्षपात और राग-द्वेष रहित दृष्टि रखना अर्थात् - सब मतों में से 'कनक परीक्षा निपुण पुरुषवत्'