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... श्री गुणानुरागकुलकम् विवेचन - जो सब के साथ उचित व्यवहार रखता है, किसी की भी निन्दा नहीं करता और सबका भला ही चाहता है, वह चाहे मूर्ख ही क्यों न हो, परन्तु सब लोग उसका मैत्रीपूर्वक आदर करेंगे और जो कुछ वह कहेगा, उसको भी सादर मानेंगे। यदि कोई मनुष्य सत्यवक्ता, विभव सम्पत्ति और विचारोत्कर्ष आदि अनेक गुणयुक्त भी है, परन्तु उसमे सहनशीलता नहीं है, याने दूसरों का अभ्युदय देख दुःखी होने का, या दोषाऽऽरोप करने का स्वभाव विद्यमान है, तो वह गुणीजनों के बीच में मात्सर्य के कारण शोभा नहीं पा सकता, किन्तु सब जगह अनादर ही पाता है।
यदि मत्सरी पुरुष सत्य बात का शुद्ध उपदेश भी देता हो, तो भी लोग उस पर विश्वास नहीं लाते, क्योंकि - हजारों सद्गुणों को कलङ्कित करने वाला मात्सर्य दुर्गुण उसमें भरा हुआ है। इसीसे उसका हितकर और मधुर वचन भी लोगों को अरुचिकर हो जाता है। इतना ही नहीं, किन्तु मत्सर के प्रभाव से मनुष्य स्वयं शरीर शोभा, राज्यसंमान और योग्यता से भ्रष्ट होकर अत्यन्त दुःखी बन जाता है। __यहाँ पर एक 'धन्नूलाल' चौधरी का मात्सर्य पर दृष्टांत बहुत ही मनन करने लायक है -
इस भरत क्षेत्र में 'श्रीपुर' नाम का सब देशों में विख्यात एक नगर, किसी समय धनद की लक्ष्मी को लूटने वाला और व्यापारोन्नति का मुख्य धाम था। वहाँ अनेक सौधशिखरी जिन मंदिरों की श्रेणियाँ शुद्धधर्म की ध्वजा फरका रही थीं और जहाँ पंथियों के विश्राम के निमित्त अनेक धर्मशालाएँ बनी हुईं तथा याचक लोगों को निराश न होने के वास्ते अनेक दानशालाएँ खुली हुई थीं और विपणिहाट श्रेणियों की अपरिमित शोभा झलक रही थी और