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________________ २५२ श्रुतज्ञान - मतिज्ञान के बाद होने वाले एवं शास्त्रों को सुनने और पढने से इन्द्रिय और मन द्वारा जो ज्ञान हो वह श्रुतज्ञान है । जे.सि.बो.सं. १/१३ संज्ञी पंचेन्द्रिय - पांच इन्द्रिय वाले जीव दो प्रकार के हैं - १. संज्ञी - जो कि मन वाले हैं और २. असंज्ञी - जिनके कि मन का अभाव होता है । सागरोपम - यह काल का एक प्रकार है । दस कोड़ा - कोड़ी पल्योपम को सागरोपम कहते हैं तथा पल्य अर्थात् कूप की उपमा से गिनां जाने वाला काल पल्योपम कहलाता है । जै. सि. बो. सं. १/२३: स्तनितकुमार - देवों में यह भवनपति नामक देवनिकाय का भेद हैं । ये कुमार इसलिए कहे जाते हैं कि ये कुमार की तरह मनोज्ञ व सुकुमार होते हैं । स्तनितकुमार का चिन्ह शराव संपुट है । त. सू. १६२. स्पर्धक - किसी भी द्रव्य की शक्ति के अंशों में जघन्य से उत्कृष्ट पर्यन्त जो क्रमिक वृद्धि या हानि होती है उसी से यह स्पर्धक उत्पन्न होते हैं। जे. सि. को. ४/४७३. जै. ल. जै. सि. को . जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप जै. सि. बो. सं. त. सू. = = जैनेन्द्र सिद्धान्त कोश = जैन सिद्धान्त बोल संग्रह तत्त्वार्थ सूत्र (संघवी सुखलाल ) = संकेत जैन लक्षणावली
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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