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उपसंहार
भारतीय दार्शनिक-धार्मिक साहित्य में हमने सम्यक्त्व के स्वरूप का अवलोकन किया । जैनदर्शन में ही नहीं अपितु लगभग सभी दर्शनों ने इसके अस्तित्त्व को किसी न किसी रूप में स्वीकार किया है। .
जैनागम साहित्य में एवं आज जो सम्यक्त्व का अर्थ व स्वरूप प्रचलित है उसमें भिन्नता है । "आचारांग" एवं “सूत्रकृतांग" के प्रथम श्रुतस्कन्ध में एवं “ दशवकालिक " सूत्र में तो सम्यक्त्व व मुनिजीवन का एकीकरण ही दृष्टिगत होता है। आत्मोपम्य की भावना से
ओतप्रोत, अहिंसा, विवेक, अनवद्य-तप से युक्त चारित्र को सम्यक्त्व के अर्थ में व्यापक दृष्टिकोण से अनुलक्षित किया है । उपरोक्त गुणों की सुरक्षा भी पूर्णतया मुनिजीवन में ही संभव है । " सूत्रकृतांग" के द्वितीय श्रुतस्कन्ध में संयतीमुनि के साथ व्रतधारी श्रावकों का भी सम्यग्दृष्टि होना बताया गया है। संयतीमुनि व श्रावक श्रद्धापूर्वक धर्मानुष्ठान करते हैं, यत्र-तत्र उसका भी उल्लेख मिलता है । किंतु सम्यक्त्व के स्वरूप ने श्रद्धारूपी बाना यहाँ धारण नहीं किया । " उत्तराध्ययन सूत्र" में सर्वप्रथम सम्यक्त्व को तत्त्वश्रद्धा स्वीकार किया व तत्त्वों का भी निर्देशन किया । अन्य आगमों में इसके भेद, प्रकार, अतिचार, अंग, लक्षण आदि का कथन किया । ___आगमेतर साहित्य में तत्त्वार्थसूत्र में वाचकवर्य उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन का स्वरूप स्पष्ट रूप से निर्धारित किया। उत्तराध्ययन सूत्र की अपेक्षा तत्त्वार्थसूत्र अधिक . प्रकाश में आया । उसका कारण यह रहा कि सभी जैन संप्रदायों को तत्त्वार्थसूत्र ग्राह्य है । तत्त्वार्थसूत्र के टीकाकारों ने भी इसकी विशद चर्चा की । सम्यक्त्व के पर्यायवाची शब्द सम्यग्दर्शन, श्रद्धा, रुचि, प्रतीति विश्वास भी व्यवहृत होते हैं । सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान की उत्पत्ति में किसी ने ज्ञान को पश्चात्वर्ती