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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप अनन्य प्रेम से उनमें चित्त जोड़ते ही निष्काम ज्ञान और वैराग्य का आविर्भाव हो जाता है ।' तत्त्ववेत्तालोग ज्ञाता और ज्ञेय के भेद से रहित अखण्ड अद्वितीय सच्चिदानन्दस्वरूप ज्ञान को ही तत्त्व कहते हैं । उसी को कोई ब्रह्म, कोई परमात्मा और कोई भगवान् के नाम से पुकारते हैं। श्रद्धालु मुनिजन भागवत श्रवण से प्राप्त ज्ञान-वैराग्ययुक्त .. भक्ति से अपने हृदय में उस परमतत्त्वरूप परमात्मा का अनुभव करते हैं । इसीलिए एकाग्र मन से भक्तवत्सल भगवान् का ही नित्य निरन्तर । श्रवण, कीर्तनध्यान और आराधन करना चाहिये ।। __भागवतकार ने श्रीकृष्णभक्ति को परमश्रेष्ठ स्वीकार किया है तथा ज्ञान व वैराग्य उसी के फलस्वरूप प्राप्त हो सकते है, ऐसा माना है। साथ ही यहाँ उपरोक्त कथन से यह लक्षित होता है कि जो ज्ञान से ब्रह्म की प्राप्ति स्वीकार करते हैं उनका निषेध करके यहाँ भक्ति को प्रतिष्ठापित किया गया है। ___कर्मों को भस्मीभूत करने में भगवद् चिन्तन सहायक है उसका उल्लेख करते हुए ग्रंथकार कहते हैं कि “कर्मों की गांठ बड़ी है । विचारवान् पुरुष भगवान् के चिंतन की तलवार से उस गांठ को काट डालते हैं । हृदय में आत्मस्वरूप भगवान् का साक्षात्कार होते ही हृदय १. वासुदेवे भगवति भक्तियोग. प्रयोजितः । __ जनयत्याशु वैराग्यं ज्ञानं च यदहैतुकम् ॥ वही, १-२-७ ।। २. वदन्ति तत्तत्त्वविदस्तत्त्वं यज्ज्ञानमद्वयम् ।
ब्रह्मेति परमात्मेति भगवानिति शब्द्यते ॥ वही, १-२-११ ।। ३. तच्छ्रद्दधाना मुनयो ज्ञानवैराग्ययुक्तया । पश्यन्त्यात्मनि चात्मानं भक्त्या श्रुतगृहीतया ॥
-वही, १-२-१२ एवं ३-२५-४३ ॥ ४. तस्मादेकेन मनसा भगवान् सात्वतां पतिः ।
श्रोतव्यः कीर्तितव्यश्च ध्येयः पूज्यश्च नित्यदा । वही, १-२-१४ ॥ ५. यदनुध्यासिना युक्ताः कर्मग्रन्थिनिबन्धनम् । छिन्दन्ति कोविदास्तस्य को न कुर्यात्कथारतिम् ॥ वही, १-२-१५