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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप सम्यक्त्य के पांच लिंगों से ये अत्यधिक साम्य रखते हैं। इन साधन चतुष्टय को डॉ० पाल डायसन ने चार अपेक्षा कह कर उल्लिखित किया है।'
वेदांत में ज्ञान की सात भूमिकाएं कही हैं वे निम्न हैं-२ .
१. शुभेच्छा-पूर्व या वर्तमान जन्म में किये हुए निष्काम कर्म तथा उपासना द्वारा जिसके अन्तःकरण की शुद्धि हो गई हो और जिसे एकाग्रता प्राप्त हो गई हो ऐसे साधक को साधन चतुष्टय की सिद्धि होने से आत्मा को जानने की प्रबल मंगल इच्छा हो उसे शुभेच्छा कहते है अर्थात् तीव्र मुमुक्षा ।
२. सुविचारणा-इस इच्छा से प्रेरित होकर ब्रह्मनिष्ठ श्रोतिय : गुरु का आश्रय लेकर, वेदान्तोपदेश श्रवण कर और जो सुना है उसके अर्थ का कुतर्कों को छोड़कर अनेक युक्तियोंपूर्वक मनन करना उसे सुविचारणा कहते हैं।
३. तनुमानसी-उपर्युक्त शुभेच्छा और सुविचारणा के संयोग से इन्द्रियों के विषयों पर राग न रहे और मन की स्थिति इन विषयों पर जब कृश हो जाय तब मन की इस अन्तर्मुख क्षीणदशा को तनुमानसी कहते हैं। . ४. सत्त्वापत्ति-उपर्युक्त भूमिका त्रय के अभ्यास से साधक का मन अनात्म पदार्थों पर उदासीन होने पर आत्मस्वरूप में स्थिर होता है । श्रवणादि संशय-विपर्यय रहित स्वरूपानुभवरूपी निर्विकल्प स्थिति होने से चित्त में ज्ञानमय निश्चल, शुद्ध सत्त्व की स्थिति होती है उसे सत्त्वापत्ति ( सत्त्व-शांत ज्ञानस्वरूपता, आपत्ति-आगमन ) कहते हैं । यह चौथी स्थिति स्वयं तत्त्वज्ञान रूप होने से जीवन मुक्ति के साधन
१. वही । पृ० ८२ ॥ २. श्रीमद् शंकराचार्य, तत्त्वज्ञान । पृ० ६२२ ।