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जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप वैराग्य का ग्राह्य अर्थ यह है कि संसार के समस्त कर्त्तव्य कर्म अनासक्तिपूर्वक करना । विषयों में या उपभोग के साधनों में अनासक्ति यहीं वैराग्य है । यह अनासक्ति वैराग्य का राजमुकुट
और स्थितप्रज्ञ का उदात्त लक्षण है । इहलोक तथा परलोक के सभी राजभोगों को प्रारंभ में दोषदृष्टियुक्त विवेक से नाशवंत - जानने से .
और उन सभी के प्रति चित्त में उदित नीरसता, आग्रही प्रीति का अभाव और उसकी दृढता होने पर उन विषयों में विमुखता, और . रागद्वेष से रहितता की स्थिति और जगत् का सर्व व्यवहार आसक्ति रहित हो जाने वाली चित्तस्थिति यही सच्चे वैराग्य की निशानी है।
___ इस प्रकार विवेक और वैराग्य गुण के वृद्धिंगत होने पर मन शुद्ध होता है । जिस प्रकार पक्षी के दो पंख होते हैं, उसी प्रकार मनुष्य के ज्ञान अर्थात् विवेक और वैराग्य दो पख हैं क्योंकि इनके बिना अन्य कोई दूसरे साधन से मुक्तिरूपी महल परं चढ़ा या उड़ा नहीं जा सकता है।
३. षट्संपत्ति-( शमदमादिसाधन संपत् ) इस तीसरे षट्रसंपत्ति रूप साधन से मनःशुद्धि या मनःशान्ति होती है । ये छः शक्तियाँ संगठित रूप में एक ही है। एक ही मनुष्य के मनःसंयम के ये भिन्न भिन्न स्वरूप हैं -
१. शम - लौकिक व्यापार से मन की निवृत्ति वह है शम । चित्त में वृत्तियों के निरंकुश उद्भव तथा वेग पर अंकुश, चित्तवृत्तियों का एक में समीकरण, मनोनिग्रह, बारबार दोषदृष्टि करने से, विषयसमूह पर वैराग्य प्राप्त कर, मन का स्वलक्ष्य में स्थिर अवस्था का होना शम कहलाता है।
२. दम - बाह्य इन्द्रियों का निग्रह वह है दम । इन्द्रियों को विषय में भटकने से रोकना, उनको इस प्रकार काबू में रखकर उनसे. प्रेरित चित्तवृत्तियों को शम-दम के संयुक्त उपाय से अन्तर्मुख रखना वह दम है । शम अर्थात् मानसिक शांति और दम अर्थात् इन्द्रिय निग्रह ।