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________________ १८६ जैन दर्शन में सम्यक्त्व का स्वरूप पुरुषार्थ करना पड़ता है तभी वह मोहकर्म की दुर्भद्य ग्रंथि को भेद कर सम्यग्दर्शन प्राप्त कर सकता है । कमौका कर्ता, भोक्ता आत्मा ही है और उनसे मुक्त भी आत्मा ही होता है । इस प्रकार सांख्यमत से जैनमत यहाँ विरुद्ध दृष्टिगोचर होता है। इस प्रकार सांख्यदर्शन में सम्यग्दर्शनका विचार विवेक-ख्याति नाम से किया है । जैनदर्शन में सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान में भेद अवश्य किया है किंतु सम्यग्दर्शन होने पर ही ज्ञान में सम्यक्तता, आती है अन्यथा वह मिथ्याज्ञान होता है । सांख्यदर्शन में गस्तव में देखा जाय तो श्रद्धा से ज्ञान को अर्थात् विवेक में ज्ञान को अन्तर्निहित कर लिया है और भेदज्ञान कहा है । भेदज्ञान या विवेक की प्राथमिक अवस्था में तो संशय आदि होते है और उसके पश्चात् तत्त्वाभ्यास द्वारा दृढ़ीभूत होकर विवेक स्वरूप धारण किया जाता है । अतः सम्यर्शन और सम्यग्ज्ञान का सहभावित्व विवेक में होता है अथवा इस प्रकार भी हम कह सकते है कि विवेकख्याति सम्यग्दर्शन और सम्यरज्ञान परक है। योग दर्शन___सांख्य दर्शन में सम्यक्त्व-विचार का निरूपण' कर अब हम योगदर्शनगत सम्यक्त्व श्रद्धा की विचारधारा पर दृष्टिपात करें । वास्तव में देखा जाय तो सांख्य और योगदर्शन में परस्पर घनिष्ट संबंध है। सांख्य सिद्धांतों का व्यावहारिक जीवन में प्रयोग यही योग है। योग सांख्य का व्यावहारिक पूरक है । ज्ञानोत्पत्ति की प्रक्रिया जो सांख्योक्त है उसे योग ने भी स्वीकार किया है। योगदर्शन में सांख्य सम्मत २५ तत्त्वों को तो स्वीकार किया ही है किंतु एक ईश्वर तत्त्व को अधिक स्वीकार करके छब्बीस तत्त्वों को मान्य किया है। सांख्य मतानुसार विवेकज्ञान ही मुक्ति का साधन है । योग दर्शन यह विचार स्वीकार करके आगे अधिक निरूपण करते हुए कहते हैं कि योगाभ्यास विवेक ज्ञान का साधन है। सांख्य सिद्धांत है और योग साधना है। योग साधना के बिना सख्योक्त तत्त्वों का ज्ञान,
SR No.002254
Book TitleJain Darshan me Samyaktva ka Swarup
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji
PublisherVichakshan Smruti Prakashan
Publication Year1988
Total Pages306
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size19 MB
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