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अध्याय ३
१७३ 'कारणों को; इनसे निवृत्ति एवं निवृत्ति के उपाय के मार्गों को जानता एवं श्रद्धा करता है वह सम्यग्दृष्टि होता है । ये सभी एक दूसरे से संबंधित है यथा-जरामरण का कारण तृष्णा है और तृष्णा क्षय से जरामरण की निवृत्ति होती है । किंतु दुःखनिवृत्ति आदि के उपाय का मार्ग आर्य अष्टांगिक मार्ग है।
आचारांग का सम्यक्त्व एवं मज्झिम निकाय की सम्यग्दृष्टि में बहुत कुछ साम्य है । विरति को धारण करने वाला भिक्षु या मुनि ही इसका धारक होता है । दोनों ने इसको मान्य किया है ।
मज्झिम निकाय में कहा है कि “ उपासक की साधना से निर्वाण और आत्यन्तिक दुःख निवृत्ति संभव नहीं है, उपासक को सुगति ही प्राप्त हो सकती है । भिक्षु ही आत्यन्तिक दुःख निवृत्तिकर सकता है । भगवान् बुद्ध ने स्पष्टतया कहा है कि ऐसा कोई मनुष्य मेरे ख्याल में नहीं है कि जिसने गृहस्थ जीवन में रहकर आत्यन्तिक दुःखनिवृत्ति की हो।' .. . इससे स्पष्ट प्रतीति होती है कि बुद्ध उपासकों की साधना को अपूर्ण समझते थे ।
इस प्रकार बौद्ध परम्परा में सम्यग्दर्शन का अर्थ साम्य बहुत . कुछ सम्यग्दृष्टि से है । सम्यग्दृष्टि का अर्थ दुःख, दुःख के कारण,
दुःख निवृत्ति और दुःख विमुक्ति का मार्ग-इन चार आर्य सत्यों की . स्वीकृति है । जिस प्रकार जैन दर्शन में वह चार आर्य सत्यों का श्रद्धान है।
चार आर्य सत्यों के श्रद्धान के साथ सम्यग्दृष्टि की व्याख्या संयुक्त निकाय में वर्णित है-यह संसार तृष्णा, आसक्ति और ममत्व के मोह में बेतरह जकड़ा है। आर्य श्रावक उस तृष्णा, आसक्ति, ममत्व १. तेविज्ञवच्छगोत्तसुत्त, म० नि० ॥ २. पञ्चयसुत्त, संयुक्त निकाय १२-३-७; विशुद्धिमार्ग, भाग-२, परि० १६, पृ०.१२१ ॥